Thursday, December 25, 2008
मायावती, मुलायम को हर मामले में पीछे छोड़ देना चाहती हैं, नंगई में भी
मायाराज- जंगलराज का समानार्ती शब्द लगने लगा है। लेकिन, दरअसल ये जंगलराज से बदतर हो गया है। क्योंकि, जंगल का भी कुछ तो कानून होता ही है। 24 अगस्त को मैंने बतंगड़ ब्लॉग पर लिखा था कि गुंडे चढ़ गए हाथी पर पत्थर रख लो छाती पर लेकिन, अब ये जरूरी हो गया है कि हाथी पर चढ़े गुंडों को पत्थरों से मार गिराया जाए। क्योंकि, पहले से bimaru उत्तर प्रदेश की बीमारी अब नासूर बनती जा रही है। शुरू में जब अपनी ही पार्टी के अपराधियों को मायावती ने जेल भेजा तो, लगा कि मायाराज, मुलायम राज से बेहतर है। लेकिन, ये वैसा ही था जैसा नया भ्रष्ट दरोगा थाना संभालते ही पुराने बदमाशों को निपटाकर छवि चमकाता है और अपने बदमाश पाल-पोसकर बड़े करता है। पता नहीं अभी up (उल्टा प्रदेश) को और कितना उलटा होना बाकी है।
Saturday, June 14, 2008
मायाराज पहले के राज से तो बेहतर ही है
मायावती सरकार के पूर्व मंत्री आनंदसेन यादव के खिलाफ आखिरकार गैरजमानती वारंट जारी हो गया। इसी हफ्ते में मायावती ने अपनी सरकार के एक और मंत्री जमुना प्रसाद निषाद को भी दबंगई-गुंडई के बाद पहले मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया। उसके बाद जमुना निषाद को जेल भी जाना पड़ा। इससे पहले भी मायावती की पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया था और उन्हें भी जेल जाना पड़ा था।
अब अगरउत्तर प्रदेश में कोई रामराज्य की उम्मीद लगाए बैठा है तो, इस दिन में सपने देखना ही कहेंगे। लेकिन, सारी बददिमागी और अख्कड़पन के बावजूद मुझे लगता है कि बरबादी के आलम में पहुंच गई उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था मायाराज में ही सुधर सकती है। ऐसा नहीं है कि मायाराज में सबकुछ अच्छा ही हो रहा है। लेकिन, इतना तो है ही कि मीडिया में सामने आने के बाद, आम जनता की चीख-पुकार, कम से कम मायावती सुन तो रही ही हैं।
मुझे नहीं पता कि मायावती के आसपास के लोग सत्ता के मद में कितनी तानाशाही कर रहे हैं। लेकिन, मायावती ने जिस तरह से कल राज्य के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को जिस तरह से लताड़ा है वो, इतना तो संकेत दे ही रहा है कि मायावती को ये पता है कि अगर इस बार मिला स्वर्णिम मौका उन्होंने गंवा दिया तो, उत्तर प्रदेश के विकट राजनीतिक, सामाजिक समीकरण में दुबारा शायद ही उन्हें अपने बूते सत्ता में आने का मौका मिले।
उन्होंने भरी बैठक में कहाकि
जब थाने बिकेंगे तो, जनता कानून हाथ में लेगी ही।
और, जनता कानून हाथ में तभी लेती है जब जनप्रतिनिधियों और कानून के रखवालों से उसे सही बर्ताव नहीं मिलता।
और, मायावती के इस कहे पर यकीन इसलिए भी करना होगा कि इसके दो दिन पहले ही मायावती की सरकार के एक मंत्री जमुना प्रसाद निषाद जेल जा चुके थे। उन पर थाने में घुसकर गंडागर्दी करने, गोलियां चलाने का आरोप है। इसी में थाने में ही एक सिपाही की मौत हो गई थी। इससे पहले बसपा सरकार के मंत्री आनंदसेन यादव को बसपा के एक कार्यकर्ता की बेटी के साथ संबंध बनाने के बाद उसकी हत्या का आरोप लगने के बाद पहले मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। और, अब गैरजमानती वारंट जारी हो चुका है।
आनंदसेन के खिलाफ गैरजमानती वारंट और मंत्री पद से हटाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि इसी घटना के आसपास यूपी के पड़ोसी राज्य बिहार में एक बाहुबली विधायक अनंत सिंह ने पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था। लेकिन, देश भर से प्रतिक्रिया होने के बाद भी अनंत सिंह का कुछ नहीं बिगड़ा। सिर्फ पत्रकारों की पीटने के लिए अनंत सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात मैं नहीं कर रहा हूं। दरअसल वो पत्रकार अनंत सिंह से सिर्फ इतना पूछने गए थे कि एक लड़की ने मुख्यमंत्री को खत भेजकर अपनी जान का खतरा आपसे बताया है। साथ ही आप पर आरोप है कि आपने उस लड़की के साथ बलात्कार किया था। बस क्या था बिहार के छोटे सरकार गुस्से आ गए और पत्रकारों को दे दनादन शुरू हो गए। ये बता दें कि लालू के गुड़ों के मुकाबले नितीश के पास अनंत सिंह जैसे कुछ गिने-चुने ही गुंडे थे।
बस इतनी ही उम्मीद है कि मायावती ने राज्य के अधिकारियों को जो भाषण दिया है। वो खुद उस पर अमल करती रहेंगी।
अब अगरउत्तर प्रदेश में कोई रामराज्य की उम्मीद लगाए बैठा है तो, इस दिन में सपने देखना ही कहेंगे। लेकिन, सारी बददिमागी और अख्कड़पन के बावजूद मुझे लगता है कि बरबादी के आलम में पहुंच गई उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था मायाराज में ही सुधर सकती है। ऐसा नहीं है कि मायाराज में सबकुछ अच्छा ही हो रहा है। लेकिन, इतना तो है ही कि मीडिया में सामने आने के बाद, आम जनता की चीख-पुकार, कम से कम मायावती सुन तो रही ही हैं।
मुझे नहीं पता कि मायावती के आसपास के लोग सत्ता के मद में कितनी तानाशाही कर रहे हैं। लेकिन, मायावती ने जिस तरह से कल राज्य के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को जिस तरह से लताड़ा है वो, इतना तो संकेत दे ही रहा है कि मायावती को ये पता है कि अगर इस बार मिला स्वर्णिम मौका उन्होंने गंवा दिया तो, उत्तर प्रदेश के विकट राजनीतिक, सामाजिक समीकरण में दुबारा शायद ही उन्हें अपने बूते सत्ता में आने का मौका मिले।
उन्होंने भरी बैठक में कहाकि
जब थाने बिकेंगे तो, जनता कानून हाथ में लेगी ही।
और, जनता कानून हाथ में तभी लेती है जब जनप्रतिनिधियों और कानून के रखवालों से उसे सही बर्ताव नहीं मिलता।
और, मायावती के इस कहे पर यकीन इसलिए भी करना होगा कि इसके दो दिन पहले ही मायावती की सरकार के एक मंत्री जमुना प्रसाद निषाद जेल जा चुके थे। उन पर थाने में घुसकर गंडागर्दी करने, गोलियां चलाने का आरोप है। इसी में थाने में ही एक सिपाही की मौत हो गई थी। इससे पहले बसपा सरकार के मंत्री आनंदसेन यादव को बसपा के एक कार्यकर्ता की बेटी के साथ संबंध बनाने के बाद उसकी हत्या का आरोप लगने के बाद पहले मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। और, अब गैरजमानती वारंट जारी हो चुका है।
आनंदसेन के खिलाफ गैरजमानती वारंट और मंत्री पद से हटाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि इसी घटना के आसपास यूपी के पड़ोसी राज्य बिहार में एक बाहुबली विधायक अनंत सिंह ने पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था। लेकिन, देश भर से प्रतिक्रिया होने के बाद भी अनंत सिंह का कुछ नहीं बिगड़ा। सिर्फ पत्रकारों की पीटने के लिए अनंत सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात मैं नहीं कर रहा हूं। दरअसल वो पत्रकार अनंत सिंह से सिर्फ इतना पूछने गए थे कि एक लड़की ने मुख्यमंत्री को खत भेजकर अपनी जान का खतरा आपसे बताया है। साथ ही आप पर आरोप है कि आपने उस लड़की के साथ बलात्कार किया था। बस क्या था बिहार के छोटे सरकार गुस्से आ गए और पत्रकारों को दे दनादन शुरू हो गए। ये बता दें कि लालू के गुड़ों के मुकाबले नितीश के पास अनंत सिंह जैसे कुछ गिने-चुने ही गुंडे थे।
बस इतनी ही उम्मीद है कि मायावती ने राज्य के अधिकारियों को जो भाषण दिया है। वो खुद उस पर अमल करती रहेंगी।
Sunday, June 8, 2008
इलाहाबाद से बसपा एक और इतिहास बनाने की तैयारी में
उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों के बाद मैंने लिखा था कि आखिर लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश से क्या संकेत मिल रहे हैं। उन संकेतों की पुष्टि लोकसभा चुनाव 2009 की पार्टियों की तैयारियों से और स्पष्ट हो रहा है। बीजेपी ने पहली 250 लोकसभा उम्मीदवारों की सूची जुलाई में जारी करने का ऐलान किया है। लेकिन, बसपा ने तो, उम्मीदवारों के नाम का ऐलान करना भी शुरू कर दिया।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद की लोकसभा सीट हमेशा से बड़ी महत्व की मानी जाती रही है। ये सीट ज्यादातर देश और प्रदेश में किसी पार्टी की सत्ता का संकेत भी देती है। पिछले चुनाव में इलाहाबाद की दो महत्वपूर्ण सीटें इलाहाबाद और फूलपुर दोनों सपा के खाते में चली गई थी। इलाहाबाद से भाजपा के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी को हराकर सपा के रेवती रमण सिंह सांसद हो गए। ये इलाहाबाद की बदकिस्मती इस मायने में थी कि इलाहाबाद लोकसभा की एक विधानसभा (करछना) के विधायक को जनता ने संसद तो पहुंचा दिया। लेकिन, संसद में पहुंचने के बाद रेवती रमण का कोई भी एक ऐसा काम नहीं दिखाई दिया जो, इलाहाबाद के विकास को आगे बढ़ाता। डॉक्टर जोशी के समय की कई बड़ी योजनाएं वापस चली गईं।
और, अब इस पर और दुखद खबर ये है कि तीन बार इलाहाबाद की सीट जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाले डॉक्टर जोशी सिर्फ एक बार की हार के बाद सीट छोड़ रहे हैं। ये अब लगभग तय हो गया है कि डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी बनारस से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। अब चर्चा है कि केशरी नाथ त्रिपाठी इसी सीट से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। इसी लोकसभा की शहर दक्षिणी सीट से छे बार जीतने वाले केशरी नाथ प्रदेश अध्यक्ष रहते बसपा के नंद गोपाल नंदी से हार चुके हैं। और, इलाहाबाद लोकसभा की बीजेपी के सबसे ज्यादा वोटबैंक मानी जाने वाली सीट इलाहाबाद से कटकर फूलपुर सीट में जुड़ रही है।
इलाहाबाद की दूसरी सीट फूलपुर से सपा से अतीक अहमद सांसद चुने गए थे। अब तो, जेल में हैं और सपा से निकाल दिए गए हैं। इस बार पता नहीं कैसे चुनाव लड़ेंगे। खैर, असली समीकरण अब बना है- हाल में ही भाजपा छोड़कर बसपा में जाने वाले कपिल मुनि करवरिया की वजह से। कपिलमुनि करवरिया, भाजपा विधानमंडल दल के मुख्य सचेतक उदयभान करवरिया के बड़े भाई हैं। इलाहाबाद से उदयभान करवरिया ही भाजपा के अकेले विधायक (बारा विधानसभा) हैं। सच्चाई ये है है कि डॉक्टर जोशी के साथ संबंध कुछ कम अच्छे होने की वजह से (टिकट न मिलने से ) कपिलमुनि करवरिया ने बसपा ज्वाइन कर लिया। ज्वाइनिंग के दिन ही बसपा ने कपिलमुनि करवरिया को फूलपुर लोकसभा सीट से बसपा प्रत्याशी घोषित कर दिया। शहर उत्तरी और नवाबगंज में ब्राह्मण वोटबैंक और कपिलमुनि के साथ भाजपा का एक बड़ा वोटबैंक शिफ्ट होने से ये सीट बसपा के लिए काफी आसान दिख रही है। अतीक के जेल में होने और बसपा की सरकार होने से तो मदद मिलेगी ही। और, बाहुबल में कपिलमुनि करवरिया भी कुछ कम तो हैं नहीं।
कपलिमुनि करवरिया के बसपा ज्वाइन कराने में अहम रोल अदा करने वाले पुराने कांग्रेसी नेता और अब बसपा की सरकार में लाल बत्ती पाने वाले अशोक बाजपेयी को उसी दिन इलाहाबाद लोकसभा सीट से बसपा ने प्रत्याशी बना दिया है। अशोक बाजपेयी के बेटे हर्षवर्धन बाजपेयी को बसपा ने शहर उत्तरी से टिकट दिया था और हर्षवर्धन हजार से भी कम वोटों से विधानसभा हार गए थे। वोटबैंक और इलाहाबाद और फूलपुर लोकसभा का परसीमन फिर से होने से बदले समीकरण से बसपा दोनों लोकसभा सीटों पर सबसे बेहतर प्रत्याशी खड़ा करने में कामयाब हो चुकी है। और, ये संकेत सफल हुए तो, इलाहाबाद की दोनों सीट जातकर बसपा नया इतिहास बनाएगी। साथ ही मेरा ये अनुमान और पक्का हो रहा है कि बसपा को इस बार 35-45 सीटें तो मिलेंगी ही।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद की लोकसभा सीट हमेशा से बड़ी महत्व की मानी जाती रही है। ये सीट ज्यादातर देश और प्रदेश में किसी पार्टी की सत्ता का संकेत भी देती है। पिछले चुनाव में इलाहाबाद की दो महत्वपूर्ण सीटें इलाहाबाद और फूलपुर दोनों सपा के खाते में चली गई थी। इलाहाबाद से भाजपा के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी को हराकर सपा के रेवती रमण सिंह सांसद हो गए। ये इलाहाबाद की बदकिस्मती इस मायने में थी कि इलाहाबाद लोकसभा की एक विधानसभा (करछना) के विधायक को जनता ने संसद तो पहुंचा दिया। लेकिन, संसद में पहुंचने के बाद रेवती रमण का कोई भी एक ऐसा काम नहीं दिखाई दिया जो, इलाहाबाद के विकास को आगे बढ़ाता। डॉक्टर जोशी के समय की कई बड़ी योजनाएं वापस चली गईं।
और, अब इस पर और दुखद खबर ये है कि तीन बार इलाहाबाद की सीट जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाले डॉक्टर जोशी सिर्फ एक बार की हार के बाद सीट छोड़ रहे हैं। ये अब लगभग तय हो गया है कि डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी बनारस से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। अब चर्चा है कि केशरी नाथ त्रिपाठी इसी सीट से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। इसी लोकसभा की शहर दक्षिणी सीट से छे बार जीतने वाले केशरी नाथ प्रदेश अध्यक्ष रहते बसपा के नंद गोपाल नंदी से हार चुके हैं। और, इलाहाबाद लोकसभा की बीजेपी के सबसे ज्यादा वोटबैंक मानी जाने वाली सीट इलाहाबाद से कटकर फूलपुर सीट में जुड़ रही है।
इलाहाबाद की दूसरी सीट फूलपुर से सपा से अतीक अहमद सांसद चुने गए थे। अब तो, जेल में हैं और सपा से निकाल दिए गए हैं। इस बार पता नहीं कैसे चुनाव लड़ेंगे। खैर, असली समीकरण अब बना है- हाल में ही भाजपा छोड़कर बसपा में जाने वाले कपिल मुनि करवरिया की वजह से। कपिलमुनि करवरिया, भाजपा विधानमंडल दल के मुख्य सचेतक उदयभान करवरिया के बड़े भाई हैं। इलाहाबाद से उदयभान करवरिया ही भाजपा के अकेले विधायक (बारा विधानसभा) हैं। सच्चाई ये है है कि डॉक्टर जोशी के साथ संबंध कुछ कम अच्छे होने की वजह से (टिकट न मिलने से ) कपिलमुनि करवरिया ने बसपा ज्वाइन कर लिया। ज्वाइनिंग के दिन ही बसपा ने कपिलमुनि करवरिया को फूलपुर लोकसभा सीट से बसपा प्रत्याशी घोषित कर दिया। शहर उत्तरी और नवाबगंज में ब्राह्मण वोटबैंक और कपिलमुनि के साथ भाजपा का एक बड़ा वोटबैंक शिफ्ट होने से ये सीट बसपा के लिए काफी आसान दिख रही है। अतीक के जेल में होने और बसपा की सरकार होने से तो मदद मिलेगी ही। और, बाहुबल में कपिलमुनि करवरिया भी कुछ कम तो हैं नहीं।
कपलिमुनि करवरिया के बसपा ज्वाइन कराने में अहम रोल अदा करने वाले पुराने कांग्रेसी नेता और अब बसपा की सरकार में लाल बत्ती पाने वाले अशोक बाजपेयी को उसी दिन इलाहाबाद लोकसभा सीट से बसपा ने प्रत्याशी बना दिया है। अशोक बाजपेयी के बेटे हर्षवर्धन बाजपेयी को बसपा ने शहर उत्तरी से टिकट दिया था और हर्षवर्धन हजार से भी कम वोटों से विधानसभा हार गए थे। वोटबैंक और इलाहाबाद और फूलपुर लोकसभा का परसीमन फिर से होने से बदले समीकरण से बसपा दोनों लोकसभा सीटों पर सबसे बेहतर प्रत्याशी खड़ा करने में कामयाब हो चुकी है। और, ये संकेत सफल हुए तो, इलाहाबाद की दोनों सीट जातकर बसपा नया इतिहास बनाएगी। साथ ही मेरा ये अनुमान और पक्का हो रहा है कि बसपा को इस बार 35-45 सीटें तो मिलेंगी ही।
Friday, May 2, 2008
इलाहाबाद बैंक बनेगा राष्ट्रीय धरोहर
इलाहाबाद में इलाहाबाद बैंक की मुख्य शाखा अब राष्ट्रीय धरोहर बनेगी। पुराने जमाने के महल की सी इस इमारत का वो स्वरूप अब भी बरकरार है। और, इसी को देखते हुए इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज ने ये बैंक की इमारत को राष्ट्रीय धरोहर बनाने का प्रस्ताव इलाहाबाद बैंक के कोलकाता मुख्यालय को भेजा है।
यज्ञदत्त शर्मा तीसरी बार चुनाव जीते
यज्ञदत्त शर्मा इलाहाबाद झांसी शिक्षक स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीत गए हैं। ये उनकी लगातार तीसरी जीत है। यज्ञदत्त शर्मा को चूंकि मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। इसलिए इस जीत की खुशी थोड़ा ज्यादा है। अभी मैं इलाहाबाद गया था तो, मिलित (यज्ञदत्तजी की बिटिया) दुबई से आई हुई थी। मिलित को बेटा हुआ है। और, मैं अपनी पत्नी के साथ मिलने गया था। शर्माजी तो प्रचार में थे मुलाकात नहीं हुई।
यज्ञदत्तजी लगातार तीन बार से विधायक हो रहे हैं लेकिन, कभी भी उनके घर जाने पर ऐसा नहीं लगा कि किसी वीआईपी के घर पहुंच गए हों। सामान्य जीवन शैली है। लोगों से संपर्क। इलाहाबाद-झांसी में शिक्षकों और स्नातकों से इतना सलीके से मेल मिलाप शायद ही किसा हो। और, यही वजह भी रही कि दूसरे प्रत्याशियों की काफी मशक्कत के बाद भी शर्माजी अच्छे अंतर से जीते। बीजेपी के दूसरे नेताओं को उनसे कुछ सीखना चाहिए। उन्हें ढेर सारी बधाई।
यज्ञदत्तजी लगातार तीन बार से विधायक हो रहे हैं लेकिन, कभी भी उनके घर जाने पर ऐसा नहीं लगा कि किसी वीआईपी के घर पहुंच गए हों। सामान्य जीवन शैली है। लोगों से संपर्क। इलाहाबाद-झांसी में शिक्षकों और स्नातकों से इतना सलीके से मेल मिलाप शायद ही किसा हो। और, यही वजह भी रही कि दूसरे प्रत्याशियों की काफी मशक्कत के बाद भी शर्माजी अच्छे अंतर से जीते। बीजेपी के दूसरे नेताओं को उनसे कुछ सीखना चाहिए। उन्हें ढेर सारी बधाई।
Thursday, April 17, 2008
2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती को 35-45 सीट मिलेगी
मायावती के मस्त हाथी की चाल के आगे सबको रास्ता छोड़ना पड़ा। उत्तर प्रदेश के आधार के भरोसे दिल्ली फतह करने का इरादा रखने वाली मायावती को राज्य के उपचुनावों ने और बल दिया होगा। आजमगढ़ लोकसभा सीट से बसपा के अकबर अहमद डंपी ने भाजपा के टिकट पर लड़े दागी रमाकांत यादव को 54 हजार से ज्यादा मतो से हरा दिया। डंपी ने इससे पहले भी बसपा के ही टिकट पर रमाकांत यादव को हराया था। ये अलग बात है कि 1998 के लोकसभा चुनाव में रमाकांत सपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा की हालत किसी गंभीर रोग से ग्रसित मरीज के लिए दी जाने वाली आखिरी दवा के रिएक्शन (उल्टा असर) कर जाने जैसी हो गई है। राजनाथ सिंह ने कैडर, कार्यकर्ताओं को दरकिनारकर चुनाव एक लोकसभा सीट जीतने के लिए रमाकांत जैसे दागी को टिकट दिया लेकिन, फॉर्मूला फ्लॉप हो गया।
दूसरी लोकसभा सीट भी बसपा की ही झोली में गई है। खलीलाबाद लोकसभा सीट से भीष्मशंकर तिवारी ने 64,344 मतों से सपा के भालचंद्र यादव को हरा दिया है। भीष्मशंकर (कुशल तिवारी) लोकसभा तक पहुंचने में कामयाब हो गए। खलीलाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा चौथे नंबर पर चली गई है। भीष्मशंकर, चतुर राजनीतिज्ञ हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे हैं। और, इससे पहले 1998 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। हरिशंकर के छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी इससे पहले बसपा के ही टिकट पर बलिया लोकसभा उपचुनाव हार चुके हैं। ये अलग बात है कि बलिया में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर की जीत पूरी तरह से भावनात्मक जीत थी। सबसे दिलचस्प बात ये है कि विधानसभा चुनाव में खुद हरिशंकर तिवारी अपनी परंपरागत चिल्लूपार विधानसभा सीट बसपा के ही राजेश तिवारी के हाथों गंवाकर दशकों बाद पहली बार विधानसभा में जाने से रोक दिए गए।
विधानसभा सीटों में भी हाथी ने सबको रौंद दिया है। तीनो उपचुनाव के संकेत दिखा रहे हैं कि बसपा के बाद चल रही सपा से भी फासला बढ़ा है। भाजपा तो, तीसरे-चौथे नंबर पर पहुंच गई है। भाजपा बिलग्राम में तीसरे और कर्नलगंज में चौथे नंबर पर रही है। जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद की मुरादनगर सीट पर तो, चौथे नंबर पर भी उसे जगह नहीं मिल सकी हैं। इस सीट पर लोकदल के अयूब खां दूसरे नंबर पर हैं।
मैंने अभी कुछ दिन पहले भी लिखा था कि उत्तर प्रदेश में अब तक विधानसभा चुनाव के समय के समीकरण बदले नहीं हैं। और, उत्तर प्रदेश की तीन विधानसभा और दो लोकसभा सीटों पर बसपा के जोरदार कब्जे से ये साफ भी हो गया है। भाजपा आजमगढ़ को छोड़कर सभी जगह तीसरे नंबर पर रही है। मायावती के तानाशाही रवैये का हवाला देकर प्रदेश में मायावती के विरोधी ये कहने लगे थे कि अब जनता मायाराज के खिलाफ हो रहा है लेकिन, सच्चाई यही है कि मायाजाल बढ़ता ही जा रही है। और, अब तो इस बात की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की चाभी उसी को मिलेगी जिसको मायावती का साथ मिले।
आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव
अकबर अहमद डंपी (बसपा)- 2,27,340 मत
रमाकांत यादव (भाजपा)- 1,73,089 मत
बलराम यादव (सपा)- 1,56,621 मत
एहसान खां (कांग्रेस)- 11,210 मत
खलीलाबाद लोकसभा उपचुनाव
भीष्म शंकर तिवारी (बसपा)- 2,18,393 मत
भालचंद्र यादव (सपा)- 1,53,761 मत
संजय जायसवाल (कांग्रेस)- 94,565 मत
चंद्रशेखर पांडे (भाजपा)- 60,384 मत
बिलग्राम विधानसभा उपचुनाव
रजनी तिवारी (बसपा)- 92,196 मत
विश्राम यादव (सपा)- 54,088 मत
यदुनंदन लाल (भाजपा)- 8,168 मत
सुरेश चंद्र तिवारी (कांग्रेस)- 2,766 मत
कर्नलंगज विधानसभा उपचुनाव
बृज कुंवरि सिंह (बसपा)- 50,283 मत
योगेश प्रताप सिंह (सपा)- 40,546 मत
रामा मिश्रा (कांग्रेस)- 21,478 मत
कृष्ण कुमार (भाजपा)- 4,387 मत
मुरादनगर विधानसभा उपचुनाव
राजपाल त्यागी (बसपा)- 58,687 मत
अयूब खां (लोकदल)- 51,834 मत
मनीष (सपा)- 12,850 मत
प्रदीप त्यागी (कांग्रेस)- 5,030 मत
दूसरी लोकसभा सीट भी बसपा की ही झोली में गई है। खलीलाबाद लोकसभा सीट से भीष्मशंकर तिवारी ने 64,344 मतों से सपा के भालचंद्र यादव को हरा दिया है। भीष्मशंकर (कुशल तिवारी) लोकसभा तक पहुंचने में कामयाब हो गए। खलीलाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा चौथे नंबर पर चली गई है। भीष्मशंकर, चतुर राजनीतिज्ञ हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे हैं। और, इससे पहले 1998 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। हरिशंकर के छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी इससे पहले बसपा के ही टिकट पर बलिया लोकसभा उपचुनाव हार चुके हैं। ये अलग बात है कि बलिया में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर की जीत पूरी तरह से भावनात्मक जीत थी। सबसे दिलचस्प बात ये है कि विधानसभा चुनाव में खुद हरिशंकर तिवारी अपनी परंपरागत चिल्लूपार विधानसभा सीट बसपा के ही राजेश तिवारी के हाथों गंवाकर दशकों बाद पहली बार विधानसभा में जाने से रोक दिए गए।
विधानसभा सीटों में भी हाथी ने सबको रौंद दिया है। तीनो उपचुनाव के संकेत दिखा रहे हैं कि बसपा के बाद चल रही सपा से भी फासला बढ़ा है। भाजपा तो, तीसरे-चौथे नंबर पर पहुंच गई है। भाजपा बिलग्राम में तीसरे और कर्नलगंज में चौथे नंबर पर रही है। जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद की मुरादनगर सीट पर तो, चौथे नंबर पर भी उसे जगह नहीं मिल सकी हैं। इस सीट पर लोकदल के अयूब खां दूसरे नंबर पर हैं।
मैंने अभी कुछ दिन पहले भी लिखा था कि उत्तर प्रदेश में अब तक विधानसभा चुनाव के समय के समीकरण बदले नहीं हैं। और, उत्तर प्रदेश की तीन विधानसभा और दो लोकसभा सीटों पर बसपा के जोरदार कब्जे से ये साफ भी हो गया है। भाजपा आजमगढ़ को छोड़कर सभी जगह तीसरे नंबर पर रही है। मायावती के तानाशाही रवैये का हवाला देकर प्रदेश में मायावती के विरोधी ये कहने लगे थे कि अब जनता मायाराज के खिलाफ हो रहा है लेकिन, सच्चाई यही है कि मायाजाल बढ़ता ही जा रही है। और, अब तो इस बात की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की चाभी उसी को मिलेगी जिसको मायावती का साथ मिले।
आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव
अकबर अहमद डंपी (बसपा)- 2,27,340 मत
रमाकांत यादव (भाजपा)- 1,73,089 मत
बलराम यादव (सपा)- 1,56,621 मत
एहसान खां (कांग्रेस)- 11,210 मत
खलीलाबाद लोकसभा उपचुनाव
भीष्म शंकर तिवारी (बसपा)- 2,18,393 मत
भालचंद्र यादव (सपा)- 1,53,761 मत
संजय जायसवाल (कांग्रेस)- 94,565 मत
चंद्रशेखर पांडे (भाजपा)- 60,384 मत
बिलग्राम विधानसभा उपचुनाव
रजनी तिवारी (बसपा)- 92,196 मत
विश्राम यादव (सपा)- 54,088 मत
यदुनंदन लाल (भाजपा)- 8,168 मत
सुरेश चंद्र तिवारी (कांग्रेस)- 2,766 मत
कर्नलंगज विधानसभा उपचुनाव
बृज कुंवरि सिंह (बसपा)- 50,283 मत
योगेश प्रताप सिंह (सपा)- 40,546 मत
रामा मिश्रा (कांग्रेस)- 21,478 मत
कृष्ण कुमार (भाजपा)- 4,387 मत
मुरादनगर विधानसभा उपचुनाव
राजपाल त्यागी (बसपा)- 58,687 मत
अयूब खां (लोकदल)- 51,834 मत
मनीष (सपा)- 12,850 मत
प्रदीप त्यागी (कांग्रेस)- 5,030 मत
Wednesday, April 2, 2008
मायावती के ठसके से बदलते राजनीतिक समीकरण
अब मायावती कुछ भी प्रेस कांफ्रेंस करके बोलती हैं। मायावती ने आज फिर प्रेस कांफ्रेंस कर डाली। एक नहीं दो-दो वजहें थीं। टिकैत की गिरफ्तारी या सरकार के साथ अंदर ही अंदर हुए समझौते पर सफाई देनी थी । साथ ही अपने खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में विरोधियों पर साजिश का आरोप लगाना था पने चिरपरिचित अंदाज में मायावती आईं और रुक-रुककर अच्छे से तैयार की गई स्क्रिप्ट पढ़ डाली। इससे लोकसभा चुनावों के लिए और उसके बाद सरकार बनने के समीकरण भी काफी हद तक साफ हो गए।
मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिए ही सबको बताने, खासकर अपने वोटबैंक को भरोसा दिलाने की कोशिश की कि, कोई भी कितना बड़ा आदमी हो, उनके राज में दलितों को गाली देकर को बच नहीं सकता। टिकैत के माफी मांगने को उन्होंने जोर देकर बताया और इसी बहाने कांग्रेस पर जमकर निशाना भी साधा। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनसे इस्तीफा मांगा तो, केंद्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति के आयोग बूटा सिंह पर आरोप लगा डाला कि उनके खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल के मामले में बूटा सिंह ने कांग्रेस के दबाव में काम किया।
वैसे राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश में जरूरत से ज्यादा रुचि दिखाने से मायावती पहले से ही चिढ़ी हैं और कुल मिलाकर पिछले तीन दिनों की घटनाओं ने लोकसभा चुनावों के लिए सबको अपने-अपने सहयोगियों को चुनने का मौका दे दिया है। भाजपा को फिर 'माया' रास आ रही है। और, उत्तर प्रदेश में बसपा के राज में डरे कार्यकर्ताओं के साथ मुलायम की सपा लेफ्ट का सहारा लेकर धीरे से कांग्रेस के पाले में जा रही है।
मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिए ही सबको बताने, खासकर अपने वोटबैंक को भरोसा दिलाने की कोशिश की कि, कोई भी कितना बड़ा आदमी हो, उनके राज में दलितों को गाली देकर को बच नहीं सकता। टिकैत के माफी मांगने को उन्होंने जोर देकर बताया और इसी बहाने कांग्रेस पर जमकर निशाना भी साधा। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनसे इस्तीफा मांगा तो, केंद्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति के आयोग बूटा सिंह पर आरोप लगा डाला कि उनके खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल के मामले में बूटा सिंह ने कांग्रेस के दबाव में काम किया।
वैसे राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश में जरूरत से ज्यादा रुचि दिखाने से मायावती पहले से ही चिढ़ी हैं और कुल मिलाकर पिछले तीन दिनों की घटनाओं ने लोकसभा चुनावों के लिए सबको अपने-अपने सहयोगियों को चुनने का मौका दे दिया है। भाजपा को फिर 'माया' रास आ रही है। और, उत्तर प्रदेश में बसपा के राज में डरे कार्यकर्ताओं के साथ मुलायम की सपा लेफ्ट का सहारा लेकर धीरे से कांग्रेस के पाले में जा रही है।
Thursday, March 6, 2008
उत्तर प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव को माया मैडम की हरी झंडी
उत्तर प्रदेश में छात्रसंघ चुनावों से प्रतिबंध हट गया है। मायावती को लगा कि सपा छात्रसंघ चुनाव की बहाली के बहाने राज्य में युवाओं में अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है। इसी डर से आखिरकार मायावती ने छात्रसंघ चुनाव पर रोक हटा दी है। मैंने इससे पहले एक लेख लिखा था कि किस तरह से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान छात्रों की शख्सियत में राजनीतिक गंभीरता अपने आप समाहित हो जाती है। इस पर अनिलजी और घुघूती जी की जो टिप्पणियां आईं। उसे मैं यहां डाल रहा हूं।
अनिल रघुराज said...
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान हर छात्र को किसी न किसी छात्र संगठन से ज़रूर जुड़ना चाहिए। एकदम सही बात कही आपने। लेकिन हमारी मुख्यमंत्री माया मेमसाहब तो छात्र राजनीति को ही समाप्त करने पर अड़ी हैं।
Mired Mirage said...
यह लेख बहुत ग्यानवर्धक रहा व मुझ जैसे लोगों, जिनका राजनीति से कोई दूर का नाता भी नहीं रहा, को भी इस विषय पर सोचने को बाध्य करता है ।
घुघूती बासूती
अब मायावती ने छात्रसंघ चुनाव पर से रोक तो हटा दी। लेकिन, ये विश्वविद्यालयों के साथ ही छात्रों को भी देखना होगा कि उनके चुने नेता ऐसा (कु)कर्म न करने लगें कि फिर से राज्य की सत्ता चलाने वालों को लोकतंत्र की शुरुआती कक्षाओं को बंद करने का मौका मिल जाए।
अनिल रघुराज said...
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान हर छात्र को किसी न किसी छात्र संगठन से ज़रूर जुड़ना चाहिए। एकदम सही बात कही आपने। लेकिन हमारी मुख्यमंत्री माया मेमसाहब तो छात्र राजनीति को ही समाप्त करने पर अड़ी हैं।
Mired Mirage said...
यह लेख बहुत ग्यानवर्धक रहा व मुझ जैसे लोगों, जिनका राजनीति से कोई दूर का नाता भी नहीं रहा, को भी इस विषय पर सोचने को बाध्य करता है ।
घुघूती बासूती
अब मायावती ने छात्रसंघ चुनाव पर से रोक तो हटा दी। लेकिन, ये विश्वविद्यालयों के साथ ही छात्रों को भी देखना होगा कि उनके चुने नेता ऐसा (कु)कर्म न करने लगें कि फिर से राज्य की सत्ता चलाने वालों को लोकतंत्र की शुरुआती कक्षाओं को बंद करने का मौका मिल जाए।
Thursday, February 21, 2008
लोकतंत्र की सबसे मजबूत पाठशाला है इलाहाबाद विश्वविद्यालय
( इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन 16-17-18 फरवरी को हुआ। किसी वजह से इसमें मैं जा नहीं पाया। इस पुरातन छात्र सम्मेलन की पत्रिका के लिए मुझसे भी विश्वविद्यालय में मेरे विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों के बारे में लेख मांगा गया था। जो, विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा है। अब तक मेरे पास पत्रिका आई नहीं है, इसलिए वो पत्रिका नहीं दिखा पा रहा हूं। मैं यहां वो लेख वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं। ये लेख इस बात पर भी मेरे विचार हैं कि पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति कितनी सही है।)
पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।
मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।
खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।
एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।
खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।
बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।
चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।
इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।
विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।
इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।
छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।
छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।
विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।
विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।
प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।
पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।
मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।
खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।
एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।
खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।
बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।
चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।
इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।
विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।
इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।
छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।
छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।
विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।
विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।
प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।
Saturday, February 16, 2008
चलो अब यूपी के लोगों को दूसरे राज्य में पिटने नहीं जाना पड़ेगा
देश के बीमारू राज्यों में अगुवा उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए इससे अच्छी खबर नहीं हो सकती है। ASSOCHAM को अब उत्तर प्रदेश में संभावनाएं दिख रही हैं। देश के दो सबसे बड़े उद्योग संगठनों में से एक ASSOCHAM की ताजा स्टडी रिपोर्ट कह रही है कि उत्तर प्रदेश उद्योगों के लिहाज से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्लेटफॉर्म बन सकता है। लेकिन, ASSOCHAM को सबसे बड़ी समस्या implementation की ही लग रही है।
ASSOCHAM ने जो स्टडी की है, उसका नाम रखा है "Uttar Pradesh: a rainbow of opportunities". ASSOCHAM की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी ताकत राज्य का मानव संसाधन और जमीन को बताया गया है। ASSOCHAM के चेयरमैन वेणुगोपाल धूत के मुताबिक, राज्य में मेन्युफैक्चरिंग की विकास दर 10.5 और खेती में 4 प्रतिशत की विकास दर होनी चाहिए। राज्य में देश की 17 प्रतिशत आबादी रहती है। साथ ही देश की कुल खेती की जमीन में से 11.8 % खेती की जमीन उत्तर प्रदेश ही है।
ASSOCHAM का कहना है कि विकास की ये रफ्तार पाने के लिए राज्य में 50,000 करोड़ रुपे का निवेश होगा। उत्तर प्रदेश में IT और ITES सर्विसेज आसानी से डेवलप की जा सकती है। इन उद्योगों से राज्य हर साल 5,000 करोड़ रुपए की IT सर्विसेज निर्यात कर सकता है। और, इन्हीं दोनों इंडस्ट्री में ही राज्य में 2010 तक 8 लाख नई नौकरियों के आने की उम्मीद है।
ASSOCHAM की रिपोर्ट के मुताबिक, IT, ITES के अलावा करीब एक दर्जन क्षेत्र और हैं जिसमें राज्य तेजी से तरक्की कर सकता है। इन सेक्टर्स में राज्य में करीब दो लाख करोड़ रुपए का निवेश होने की उम्मीद है। और, 2010 तक ये सेक्टर्स UP में 25 लाख लोगों को नौकरी देंगे। ये खास सेक्टर्स हैं फूड प्रॉसेसिंग, एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज, हेवी इंजीनियरिंग, पेट्रोकेमिकल, रियल इस्टेट, रिटेल, एक्सप्रेसवेज, टेक्सटाइल-कॉटन और सिल्क और चीनी।
जब राज्य में मायावती की सरकार बनी थी। उस पर जुलाई महीने में ही मैंने उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित नाम से एक पोस्ट लिखी थी। जिसमें मैंने साफ लिखा था कि उत्तर प्रदेश मानव संसाधन और एग्री बेस्ड इंडस्ट्री के मामले में देश का सिरमौर बन सकता है। अब यही बात ASSOCHAM की रिपोर्ट भी कह रही है। बस सवाल सिर्फ ये है कि क्या मायावती की सरकार इतने बड़े विकास के लिए तैयार है।
ASSOCHAM ने जो स्टडी की है, उसका नाम रखा है "Uttar Pradesh: a rainbow of opportunities". ASSOCHAM की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी ताकत राज्य का मानव संसाधन और जमीन को बताया गया है। ASSOCHAM के चेयरमैन वेणुगोपाल धूत के मुताबिक, राज्य में मेन्युफैक्चरिंग की विकास दर 10.5 और खेती में 4 प्रतिशत की विकास दर होनी चाहिए। राज्य में देश की 17 प्रतिशत आबादी रहती है। साथ ही देश की कुल खेती की जमीन में से 11.8 % खेती की जमीन उत्तर प्रदेश ही है।
ASSOCHAM का कहना है कि विकास की ये रफ्तार पाने के लिए राज्य में 50,000 करोड़ रुपे का निवेश होगा। उत्तर प्रदेश में IT और ITES सर्विसेज आसानी से डेवलप की जा सकती है। इन उद्योगों से राज्य हर साल 5,000 करोड़ रुपए की IT सर्विसेज निर्यात कर सकता है। और, इन्हीं दोनों इंडस्ट्री में ही राज्य में 2010 तक 8 लाख नई नौकरियों के आने की उम्मीद है।
ASSOCHAM की रिपोर्ट के मुताबिक, IT, ITES के अलावा करीब एक दर्जन क्षेत्र और हैं जिसमें राज्य तेजी से तरक्की कर सकता है। इन सेक्टर्स में राज्य में करीब दो लाख करोड़ रुपए का निवेश होने की उम्मीद है। और, 2010 तक ये सेक्टर्स UP में 25 लाख लोगों को नौकरी देंगे। ये खास सेक्टर्स हैं फूड प्रॉसेसिंग, एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज, हेवी इंजीनियरिंग, पेट्रोकेमिकल, रियल इस्टेट, रिटेल, एक्सप्रेसवेज, टेक्सटाइल-कॉटन और सिल्क और चीनी।
जब राज्य में मायावती की सरकार बनी थी। उस पर जुलाई महीने में ही मैंने उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित नाम से एक पोस्ट लिखी थी। जिसमें मैंने साफ लिखा था कि उत्तर प्रदेश मानव संसाधन और एग्री बेस्ड इंडस्ट्री के मामले में देश का सिरमौर बन सकता है। अब यही बात ASSOCHAM की रिपोर्ट भी कह रही है। बस सवाल सिर्फ ये है कि क्या मायावती की सरकार इतने बड़े विकास के लिए तैयार है।
Saturday, February 9, 2008
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन
देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक इलाहाबाद विश्वविद्यालय 121 साल का हो गया है। 23 सितंबर 1887 को इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। दुनिया भर में प्रतिष्ठित इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन बुला रहा है। दुनिया भर से ब्यूरोक्रैट, साइंटिस्ट, प्रोफेसर, नेता, पत्रकार, साहित्यकार पुरातन छात्र इस सम्मेलन में शामिल होंगे।
16, 17 और 18 फरवरी तीन दिनों तक ये अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन होगा। इसके मुख्य समारोह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट भवन में होंगे। इसके अलावा सभी विभाग और छात्रावासों के पुराने छात्रों का मिलन समारोह उनके विभाग और छात्रावास की ओर से ही आयोजित किए जाएंगे। एल्युमुनाई कन्वेंशन 2008 के 3 दिनों में कुल 5 बड़े सिंपोजियम होंगे।
शनिवार 16 फरवरी को उद्घाटन सत्र के बाद न्यायिक, कानूनी क्षेत्र से जुड़े लोगों का पहला सिंपोजियम होगा। इसमें सुप्रीमकोर्ट के कई न्यायाधीशों के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय और दूसरे राज्यों के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, अधिवक्ता शामिल होंगे। 17 फरवरी 08 को तीन सत्र होने हैं। पहले सत्र में कला और साहित्य पर चर्चा होगी। दूसरे सत्र में विज्ञान-तकनीक और तीसरे सत्र में शिक्षा और राष्ट्रीय विकास पर चर्चा होगी। इसी दिन शाम को हॉस्टल कॉन्क्लेव का भी आयोजन किया जाएगा।
आखिरी दिन 18 फरवरी 08 को आज के परिदृश्य में बुद्धिजीवियों, संस्थाओं और दूसरे संस्थानों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में किस तरह की भूमिका हो सकती है, इस पर चर्चा होगी। इसके बाद एक डेढ़ घंटे का ओपन हाउस होगा जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय पुरातन छात्र संगठन इस बात पर चर्चा करेंगे कि विश्वविद्यालय की प्रगति में किस तरह से सहायक हुआ जा सकता है।
एल्युमुनाई कन्वेंशन 2008 के सचिव डॉक्टर प्रशांत अग्रवाल हैं। इसमें शामिल होने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र डॉक्टर अग्रवाल से agarwalprashant@hotmail.com पर या विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.allduniv.ac.in के जरिए रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं।
Friday, February 8, 2008
.... और अब चाहिए कोडिफाइड मीडिया
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की पत्रिका ‘बरगद’ का ताजा अंक मीडिया पर है। इस अंक में मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट होना चाहिए क्या। पत्रकारिता की नई प्रवृत्तियां बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समाचारों में सनसनी और टीआरपी की होड़, विशेषीकृत पत्रकारिता न तकनीकी लेखन, सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम बनाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा मीडिया की भाषा कैसी होनी चाहिए विषय पर तीन दिन तक चली राष्ट्रीय संगोष्ठी का पूरा निचोड़ है।
इस गोष्ठी में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष रामशरण जोशी, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति राधेश्याम शर्मा, सहारा टाइम्स के प्रमुख उदय सिन्हा, जामिया मिलिया, नई दिल्ली से प्रोफेसर हेमंत जोशी, एनडीटीवी, दिल्ली के समाचार संपादक प्रियदर्शन, वरिष्ठ टीवी पत्रकार मंजरी जोशी, नया ज्ञानोदय नई दिल्ली के संपादक रवींद्र कालिया, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी के राय और दूसरे कई मीडिया के दिग्गजों के साथ मुझे शामिल होने का मौका मिला था। मैंने कौन बनाए मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट विषय पर उद्घाटन सत्र में अपनी बात रखी थी। इस संगोष्ठी के संयोजक सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन के अध्यापक और बरगद पत्रिका के प्रबंध संपादक धनंजय चोपड़ा थे।
बरगद का ये अंक bargad@rediffmail.com प्रो जी के राय या धनंजय चोपड़ा के नाम मेल करके मंगाया जा सकता है। इसकी सहयोग राशि 10 रुपए है।
Wednesday, February 6, 2008
मायावती सही कह रही थी क्या
दिल्ली पुलिस इन दिनों बड़े-बड़े कारनामे कर रही है। बड़े-बड़े भगोड़े बदमाशों को दिल्ली पुलिस धर दबोच रही है, सलाखों के पीछे पहुंचा दे रही है। खासकर उत्तर प्रदेश के भगोड़े बदमाशों के लिए तो दिल्ली पुलिस काल बन गई है। इधर की खबरों को देखकर पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है। दो दशक से भगोड़े पांच लाख के इनामी बदमाश बृजेश सिंह के बाद इलाहाबाद का कुख्यात भगोड़ा माफिया सांसद भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आ गया है।
लेकिन, एक बड़ा इत्तफाक दिख रहा है जिससे सवाल भी खड़े हो सकते हैं कि आखिर उत्तर प्रदेश के अपराधी दिल्ली पुलिस की ही पकड़ में क्यों आ रहे हैं। बृजेश सिंह के भुवनेश्वर से पकड़े जाने के बाद जब अतीक अहमद दिल्ली से पकड़े गए तो, मुझे लगने लगा कि कहीं मायावती सही तो, नहीं कह रही थी। मायावती ने कुछ दिन पहले ही प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था कि समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुना गया भगोड़ा सांसद अतीक अहमद उनकी हत्या करने की फिराक में हैं। और केंद्र की कांग्रेस सरकार उसकी मदद कर रही है। वैसे तो इतनी तगड़ी सिक्योरिटी में रहने वाली मुख्यमंत्री को कोई अपराधी कैसे मार सकता है। लेकिन, आरोप जब मुख्यमंत्री खुद लगा रही हो तो, उस पर कुछ तो यकीन करना ही पड़ता है।
वैसे मायावती का अतीक से डरना बेवजह नहीं है। मायावती को लखनऊ के वीवीआईपी गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के रमाकांत, उमाकांत यादव और अतीक अहमद की बदसलूकी आज भी डराती होगी। वैसे जब मायावती ने अतीक से अपनी जान का खतरा बताया तो, पहले से ही उत्तर प्रदेश से भगोड़ा घोषित किए जा चुके अतीक की पुलिस मुठभेड़ में हत्या की आशंका बलवती हो गई। लेकिन, न तो कल्याण सिंह का जमाना था और न ही अतीक अहमद, शिव प्रकाश शुक्ला की तरफ सिर्फ अपराधी था। अतीक माननीय सांसद हैं और आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा के लिए काम की ताकत बन सकते हैं। अब अगर दिनदहाड़े हुई हत्या के बाद भी अतीक जैसा बदमाश मुस्कुराते हुए मुख्यमंत्री पर आरोप लगाकर मजे से जेल जा सकता है तो, मारे गए बीएसपी विधायक राजू पाल की विधवा पूजा पाल और राजू की मां रानी पाल का डरना तो बेवजह नहीं ही है। उनके पास तो मुख्यमंत्री जैसी सुरक्षा भी नहीं है। राजू पाल हत्याकांड में गवाह उमेश की तो जैसे सांस ही रुक गई है।
अतीक का दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आना कई सवाल खड़े करता है। क्या उत्तर प्रदेश पुलिस में अतीक का जाल इतना मजबूत हो चुका है कि अतीक की सारी बातचीत रिकॉर्ड होने के बाद भी पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी। कहते हैं कि फरारी में अतीक ने 65 से ज्यादा सिमकार्ड इस्तेमाल किए। अतीक का भाई अशरफ और हमजा अभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आए हैं। साफ है माहौल ठीक होते ही ये दोनों भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त से यूपी की जेल में महफूज हो जाएंगे। अतीक ने दिल्ली पुलिस (मुझे साफ मिलीभगत लगती है) को खुद को सौंपने से पहले दिल्ली में टीवी चैनलों को जिस ठाट से इंटरव्यू दिया था वो, देखने लायक था। साफ दिख रहा था कि दिल्ली में किसी सांसद आवास पर इंटरव्यू दिया गया था।
एक और बात छोटे-छोटे मामलों में आजकल पुलिस अपराधियों से सच उगलवाने के लिए नारको टेस्ट का सहारा लेने लगी है। फिर अतीक को इससे क्यों बख्शा जा रहा है। साफ है अगर बेहोशी में अतीक ने सारी सच्चाई उगली तो, राजू पाल का हत्यारा साबित होने के साथ वो कई बड़े नेताओं और उत्तर प्रदेश पुलिस के कई बड़े अफसरों को भी नाप लेगा। इलाहाबाद शहर और अतीक के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में तो सबकी बोलती सी बंद हो गई है। सब कह रहे हैं कि जेल में बैठा अतीक तो अब वहीं से किसी की भी हत्या करवा सकता है। अब सोचिए कि मायावती क्या कर लेंगी अगर सपा और कांग्रेस दोनों को अतीक नेता लग रहे हैं अपराधी नहीं। मुझे तो लगता है कि मायावती सच ही कह रही हैं कि केंद्र की कांग्रेस सरकार भी अतीक की मदद कर रही है। और, अगले लोकसभा चुनाव में नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया अम्मा की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से अपना प्रत्याशी बना सकती है। जीतने में कोई दिक्कत तो है ही नहीं।
लेकिन, एक बड़ा इत्तफाक दिख रहा है जिससे सवाल भी खड़े हो सकते हैं कि आखिर उत्तर प्रदेश के अपराधी दिल्ली पुलिस की ही पकड़ में क्यों आ रहे हैं। बृजेश सिंह के भुवनेश्वर से पकड़े जाने के बाद जब अतीक अहमद दिल्ली से पकड़े गए तो, मुझे लगने लगा कि कहीं मायावती सही तो, नहीं कह रही थी। मायावती ने कुछ दिन पहले ही प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था कि समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुना गया भगोड़ा सांसद अतीक अहमद उनकी हत्या करने की फिराक में हैं। और केंद्र की कांग्रेस सरकार उसकी मदद कर रही है। वैसे तो इतनी तगड़ी सिक्योरिटी में रहने वाली मुख्यमंत्री को कोई अपराधी कैसे मार सकता है। लेकिन, आरोप जब मुख्यमंत्री खुद लगा रही हो तो, उस पर कुछ तो यकीन करना ही पड़ता है।
वैसे मायावती का अतीक से डरना बेवजह नहीं है। मायावती को लखनऊ के वीवीआईपी गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के रमाकांत, उमाकांत यादव और अतीक अहमद की बदसलूकी आज भी डराती होगी। वैसे जब मायावती ने अतीक से अपनी जान का खतरा बताया तो, पहले से ही उत्तर प्रदेश से भगोड़ा घोषित किए जा चुके अतीक की पुलिस मुठभेड़ में हत्या की आशंका बलवती हो गई। लेकिन, न तो कल्याण सिंह का जमाना था और न ही अतीक अहमद, शिव प्रकाश शुक्ला की तरफ सिर्फ अपराधी था। अतीक माननीय सांसद हैं और आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा के लिए काम की ताकत बन सकते हैं। अब अगर दिनदहाड़े हुई हत्या के बाद भी अतीक जैसा बदमाश मुस्कुराते हुए मुख्यमंत्री पर आरोप लगाकर मजे से जेल जा सकता है तो, मारे गए बीएसपी विधायक राजू पाल की विधवा पूजा पाल और राजू की मां रानी पाल का डरना तो बेवजह नहीं ही है। उनके पास तो मुख्यमंत्री जैसी सुरक्षा भी नहीं है। राजू पाल हत्याकांड में गवाह उमेश की तो जैसे सांस ही रुक गई है।
अतीक का दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आना कई सवाल खड़े करता है। क्या उत्तर प्रदेश पुलिस में अतीक का जाल इतना मजबूत हो चुका है कि अतीक की सारी बातचीत रिकॉर्ड होने के बाद भी पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी। कहते हैं कि फरारी में अतीक ने 65 से ज्यादा सिमकार्ड इस्तेमाल किए। अतीक का भाई अशरफ और हमजा अभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आए हैं। साफ है माहौल ठीक होते ही ये दोनों भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त से यूपी की जेल में महफूज हो जाएंगे। अतीक ने दिल्ली पुलिस (मुझे साफ मिलीभगत लगती है) को खुद को सौंपने से पहले दिल्ली में टीवी चैनलों को जिस ठाट से इंटरव्यू दिया था वो, देखने लायक था। साफ दिख रहा था कि दिल्ली में किसी सांसद आवास पर इंटरव्यू दिया गया था।
एक और बात छोटे-छोटे मामलों में आजकल पुलिस अपराधियों से सच उगलवाने के लिए नारको टेस्ट का सहारा लेने लगी है। फिर अतीक को इससे क्यों बख्शा जा रहा है। साफ है अगर बेहोशी में अतीक ने सारी सच्चाई उगली तो, राजू पाल का हत्यारा साबित होने के साथ वो कई बड़े नेताओं और उत्तर प्रदेश पुलिस के कई बड़े अफसरों को भी नाप लेगा। इलाहाबाद शहर और अतीक के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में तो सबकी बोलती सी बंद हो गई है। सब कह रहे हैं कि जेल में बैठा अतीक तो अब वहीं से किसी की भी हत्या करवा सकता है। अब सोचिए कि मायावती क्या कर लेंगी अगर सपा और कांग्रेस दोनों को अतीक नेता लग रहे हैं अपराधी नहीं। मुझे तो लगता है कि मायावती सच ही कह रही हैं कि केंद्र की कांग्रेस सरकार भी अतीक की मदद कर रही है। और, अगले लोकसभा चुनाव में नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया अम्मा की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से अपना प्रत्याशी बना सकती है। जीतने में कोई दिक्कत तो है ही नहीं।
Thursday, January 24, 2008
उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा इनामी पकड़ में आने का मतलब
उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े इनामी माफिया को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। भुवनेश्वर के बिग बाजार के बाहर से धरे गए बृजेश सिंह पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने पांच लाख रुपए का इनाम रखा था। बृजेश बराबर का ही इनामी ददुआ डाकू था जिसे मायावती की सरकार बनने के बाद पुलिस ने बांदा के जंगलों में मार गिराया। लेकिन, करीब दो दशकों से सारी मशक्कत के बाद भी उत्तर प्रदेश पुलिस को बृजेश सिंह का सुराग तक नहीं मिल सका। अब दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बृजेश सिंह को खोज निकाला है। गायब रहकर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में बृजेश सिंह का आतंक इतना बड़ा था कि उस पूरे इलाके में रेलवे और दूसरे सरकारी ठेकों से लेकर कोयले तक की दलाली में बृजेश सिंह का सिक्का चलता था।
वैसे बृजेश सिंह के गायब होने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि बृजेश पूर्वी उत्तर प्रदेश में यहां के दूसरे माफिया और विधायक मुख्तार अंसारी के हाथों बुरी तरह पिट गया था। यही वजह थी कि बृजेश ने राजनीतिक शरण के रास्ते तलाशने शुरू कर दिए थे। अपने भाई चुलबुल सिंह को बीजेपी में घुसाया। चुलबुल बनारस जिला पंचायत के अध्यक्ष बन गए। फिर भतीजा बसपा के टिकट पर पहले ब्लॉक प्रमुख और अब विधायक बन चुका है।
बृजेश गिरोह के ज्यादातर बड़े अपराधियों की या तो हत्या हो चुकी है। या फिर वो चुपचाप राजनीतिकी छतरी तानकर किसी तरह अपना जीवन चला रहे हैं। बृजेश सिंह के खासमखास अवधेश राय की हत्या होने के बाद उनके छोटे भाई अजय राय विधायक हो गए और मुख्तार से लड़ाई लड़ने के बजाए सिर्फ अपनी इज्जत बचाने में ही लगे रहे। कृष्णानंद राय जैसे लोग भी थे जो, बीजेपी से विधायक चुने जाते रहे और बृजेश गिरोह की अघोषित रूप से कमान संभाले हुए थे। लेकिन, आरोप है कि मुख्तार अंसारी ने ही कृष्णानंद राय की हत्या करवा दी। मुख्तार के गृह जिले गाजीपुर में ही कृष्णानंद राय का चुनौती बने रहना मुख्तार को कैसे बर्दाश्त हो सकता था। बनारस में हुई अवधेश राय की हत्या में भी मुख्तार पर आरोप है।
आमतौर पर लोगों को बृजेश और मुख्तार की दुश्मनी ही लोगों को याद है। लेकिन, दरअसल बृजेश के अपराधी बनने की शुरुआत आजमगढ़ की बाजार में बृजेश के पिता की हत्या होने से हुई थी। जब दूसरे दबंग ठाकुरों ने बृजेश के पिता को गोली मारकर और चाकुओं से छलनी कर हत्या कर दी थी। उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के दो बदमाशों हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की दुश्मनी खुलेआम चलती थी। हरिशंकर तिवारी ब्राह्मण और वीरेंद्र शाही ठाकुर बदमाशों के सरगना जैसे काम करते थे। उसी में बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी का उदय हुआ।
चढ़ी रंगबाजी के समय बृजेश सिंह ने बहुत तेजी से पूरे उत्तर प्रदेश में अपना जाल फैला लिया। बिहार में तब वीरेंद्र सिंह टाटा की अच्छी गुंडागर्दी चलती थी। बृजेश सिंह और वीरेंद्र टाटा ने अच्छा कॉकस बना लिया था। जिससे चंदौसी की कोयला खदानों से लेकर बोकारो और जमशेदपुर तक इन लोगों की तूती बोलने लगी। कोयले की कमाई के अलावा रेलवे, पीडब्ल्यूडी और दूसरे सरकारी विभागों की ठेकेदारी इन लोगों की कमाई का मुख्य जरिया था। बृजेश सिंह का नाम मुंबई के जेजे अस्पताल गोलीकांड में भी आया था। लेकिन, इन सबके बावजूद बृजेश ज्यादातर अंडरग्राउंड ही रहता था। वो, लोगों के सामने नहीं आता था। उसकी यही मजबूती धीरे-धीरे कमजोरी बनती गई।
मुख्तार जेल में होता या फिर बाहर जबकि, बृजेश अंडरग्राउंड रहकर ही गिरोह चला रहा था। इस बीच मुख्तार और बृजेश गिरोह के बीच कई बार आमने-सामने गोलियां चलीं। एक बार तो बृजेश सिंह ने गिरोह के साथ गाजीपुर जेल में बंद मुख्तार अंसारी पर गोलियां चलाईं। लेकिन, धीरे-धीरे मुख्तार अंसारी का पलड़ा भारी होता गया। बनारस में अवधेश राय की हत्या के बाद बृजेश सिंह इस क्षेत्र में काफी कमजोर हो गया। इसी बीच हरिशंकर तिवारी के ही तैयार किए लड़के गोरखपुर में उन्हें चुनौती देना शुरू कर चुके थे। 1995 आते-आते गोरखपुर में शिव प्रकाश शुक्ला, आनंद पांडे और राजन तिवारी का गिरोह हरिशंकर तिवारी को उन्हीं के गढ़ में चुनौती देने लगा।
हरिशंकर तिवारी से सीखने वाले ये लड़के इतने मनबढ़ थे कि वो, अकेले बादशाह बनना चाहते थे। उनके निशाने हर वो बदमाश था जिसकी हत्या करने से उनका कद बढ़ जाता। पहले इन मनबढ़ लड़कों के शिकार गोरखपुर के छोटे-मोटे बदमाश हुए। फिर कई बार की कोशिश के बाद इन लोगों ने वीरेंद्र शाही की लखनऊ में हत्या कर दी। शिव प्रकाश शुक्ला हरिशंकर तिवारी को मारकर उन्हीं की विधानसभा चिल्लूपार से चुनाव लड़ने की तैयारी में था। लेकिन, आनंद पांडे की वजह से शिव प्रकाश की य हसरत परवान नहीं चढ़ की।
लेकिन, इन लड़कों के मुंह खून लग चुका था। हर एक हत्या के बाद इनके पास पैसा और बदमाशों वाली इज्जत बढ़ती जा रही थी। बिहार के मंत्री बृज बिहारी प्रसाद की हॉस्पिटल में हत्या, इलाहाबाद में जवाहर पंडित की दिनदहाड़े व्यस्त बाजार सिविल लाइंस में हत्या, बनारस से मिर्जापुर के रास्ते में वीरेंद्र टाटा की हत्या, लखनऊ में गोरखपुरे के एक नेता पर होटल में घुसकर चलाई गई गोलिया और दूसरी कई हत्याएं एक के बाद एक हुईं और सबमें शिव प्रकाश शुक्ला, आनंद पांडे और राजन तिवारी गिरोह का ही नाम आया। कहा जाता है कि इन लोगों ने लखनऊ में मुख्तार अंसारी के काफिले का भी पीछा किया था लेकिन, मुख्तार भाग निकलने में सफल रहा। कहा ये भी जाता है कि प्रतापगढ़ के बाहुबली विधायक रघुराज प्रताप सिंह से ये वसूली करने में कामयाब भी हो गए थे।
इनका दिमाग खराब हुआ तो प्रदेश के सारे माफिया इन नए लड़कों के गिरोह के दुश्मन बन गए। और, पुलिस को इनके छिपने के ठिकाने के बारे में जानकारी देनी शुरू कर दी। इसी बीच ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या में साक्षी महाराज और विजय सिंह का नाम आया तो, इस गिरोह ने साक्षी महाराज को निशाना बनाने की कोशिश की। लेकिन, इससे पहले कि वो सफल होते, साक्षी महाराज ने अपनी और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की जान को शिव प्रकाश शुक्ला से खतरा बताकर पुलिस मशीनरी की इज्जत दांव पर लगा दी। फिर क्या था पहले एक-एक कर इस गिरोह के शूटर लड़के मारे गए। फिर आनंद पांडे और फिर शिव प्रकाश शुक्ला को पुलिस ने मार गिराया।
कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते बड़े पैमाने पर बदमाशों के पुलिस एनकाउंटर के बाद कई सालों तक उत्तर प्रदेश में संगठित अपराधी छिपते-छिपाते ही अपराध कर रहे थे। लेकिन, फिर धीरे-धीरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में दूसरे बदमाशों का गिरोह तैयार हो गया। गाजीपुर में मुख्तार अंसारी, इलाहाबाद में अतीक अहमद और प्रतापगढ़ में रघुराज प्रताप सिंह अपनी जड़ें मजबूत कर चुके थे। मुलायम सिंह यादव के शासन में इन तीनों की ही तूती बोलती थी। फिर भी ये अपने क्षेत्रों से बाहर बहुत दखल नहीं देते थे। इस वजह से उत्तर प्रदेश में आम लोग दहशत में नहीं थे।
अब बृजेश सिंह पकड़ा जा चुका है। बृजेश के पहले ही राजनीतिक आत्मसमर्पण की बातें हो रही थीं। और, कहा भी जा रहा है कि बीजेपी और बीएसपी के जरिए वो खुद को बचाए रखने में कामयाब हो पा रहा था। लेकिन, अब बृजेश सबके सामने होगा। कानून की पेचीदगियों के लिहाज से बृजेश को जमानत भी मिल सकती है। या फिर वो लंबे समय लिए जेल में होगा। साफ है जिस बृजेश का किसी ने जब चेहरा नहीं देखा था और उसकी आतंक से कमाई चल रही थी तो, उसके सामने आने के बाद की स्थिति का अंदाजा साफ लगाया जा सकता है। बृजेश बहुत कमजोर हो चुका है और सपा की सरकार न होने से मुख्तार अंसारी को भी प्रशासन से बहुत मदद नहीं मिलने वाली है। लेकिन, दोनों के बीच एक बार फिर से पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंडरग्राउंड साम्राज्य पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो सकती है।
Sunday, January 6, 2008
चंद्रशेखर की पैतृक संपत्ति बलिया के लोगों ने उनके बेटे को सौंप दी
स्वर्गीय चंद्रशेखर में बलिया के बागियों की निष्ठा अब भी बनी हुई है। आजीवन बलिया से सांसद रहे चंद्रशेखर की मृत्यु के बाद बलिया की जनता ने उनके बेटे को सांसद बना दिया। अब उत्तर प्रदेश की एक लोकसभा सीट के उपचुनाव के नतीजे आए तो, राजनीतिक विश्लेषक और पार्टियों इस जीत के राजनीतिक मायने निकालने में जुट गए हैं। लेकिन, अगर ईमानदारी से इस चुनाव के नतीजे को देखें तो, इसके मायने देश की राजनीति के युवा तर्क को बलिया की जनती अंतिम श्रद्धांजलि से ज्यादा ये कुछ नहीं है।
मेरे ऐसा कहने की पीछे खास वजह भी है। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर समाजवादी पार्टी के टिकट से सांसद चुने गए हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि सपा इसका जोर-शोर से हल्ला करेगी और इसे राज्य में आने वाले लोकसभा चुनाव के राजनीतिक रुझान के तौर पर बताएगी। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार आने के बाद से मांद में छिप गए सपा के कार्यकर्ता-नेता बलिया जीतने के बाद चौराहों, बैठकों पर फिर से लोहिया के आधुनिक चेले मुलायम को धरती पुत्र बताने लगे हैं।
लेकिन, क्या बलिया सपा ने जीता है। एकदम नहीं। बलिया की लोकसभा सीट बलिया वालों ने चंद्रशेखर को पैतृक संपत्ति जैसा बनाकर दे दिया था। अब पैतृक संपत्ति थी तो, स्वाभाविक है कि बेटे को इसे विरासत में मिलना ही था। समाजवादी पार्टी ने तो, बस मौके की नजाकत भांपकर नीरज शेखर को साइकिल पर बिठा दिया। बलिया को स्वर्गीय चंद्रशेखर की पैतृक संपत्ति मैं इसलिए कह रहा हूं कि बलिया जाने पर कहीं से भी ये अहसास नहीं होता कि ये भारतीय राजनीति के एक सबसे ताकतवर नेता की आजीवन लोकसभा सीट रही है।
विकास बलिया में रहने वालों को टीवी चैनल या फिर अखबारों की खबरों के जरिए ही पता है। या फिर जो, दिल्ली में चंद्रशेखर के बंगले जाते थे उन्होंने, ही देखा-जाना है। लेकिन, फिर भी चंद्रशेखर जिंदा रहते (और शायद अब भी) बलिया में चंद्रशेखर फोबिया ऐसा था कि बलिया से विधानसभा चुनाव जीतने वाले भाजपा के कई विधायक, मंत्री भी लोकसभा चुनाव में चंद्रशेखर के पक्ष में ही चीखते नजर आते थे।
यहां रहने वालों को चंद्रशेखर ने विकास के नशे से इतना दूर रखा कि लोग उन्हें सिर्फ चंद्रशेखर होने के नाम से ही सारी जिंदगी जिताते रहे। बलिया में विकास न करने के लिए चंद्रशेखर से बड़ा कुतर्क शायद ही कोई दे सके। चार महीने के लिए इस देश के प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर कहते थे- मैं देश का नेता हूं। मुझे देश की तरक्की करनी है, देश तरक्की करेगा तो, बलिया भी विकसित हो जाएगा। चंद्रशेखर अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन, चंद्रशेखर की इस बात पर बहस होनी इसलिए जरूरी है कि कोई नेता जिस लोकसभा सीट से चुनकर संसद मे पहुंचता हो, वहां के विकास पर ऐसे अजीब कुतर्क कैसे गढ़ सकता है।
लेकिन, बलिया के लोग शायद ऐसे ही हैं। बस चंद्रशेखर ने उनकी नब्ज पकड़कर उसी हिसाब से उन्हें उन्हीं की अच्छी लगने वाली भाषा में उसी बात को उनके दिमाग में बसा दिया कि वो देश में सबसे अलग और कुछ श्रेष्ठ हैं। बलिया के लोगों को मैं अपनी पढ़ाई के दौरान इलाहाबाद में बड़े ठसके से ये नारा लगाते सुनता था कि ‘अदर जिला इज जिल्ली, बलिया इज नेशन’। बागी बलिया कहकर वो खुश हो लेते हैं। देश से दस दिन पहले बलिया आजाद हुआ था, बस इतने से ही खुश हो लेते हैं। इस आत्ममुग्धता के शिकार बलिया वालों को पता ही नहीं लगा कि कब वो देश की मुख्य धारा से पूरी तरह से अलग हो गए हैं। यहां तक कि बलिया वालों को बगल के मऊ को देखकर भी शर्म नहीं आती लिया जो, कल्पनाथ राय के सांसद रहते हुए तहसील से चमकता हुआ जिला बन गया था।
खैर, चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर बलिया से जीतकर लोकसभा में यानी दिल्ली पहुंच गए हैं। वैसे बलिया के लोगों को पता नहीं कैसे ये भ्रम हो रहा है कि चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को उन्होंने बलिया से दिल्ली पहुंचा दिया। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर तो पहले से ही दिल्ली में थे। और, ऐसे दिल्ली में थे कि इस लोकसभा चुनाव से पहले मुश्किल से ही बलिया के लोग चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को पहचानते थे। यही वजह थी कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी बलिया में चंद्रशेखर के ही बेटे को बाहरी बताने का दुस्साहस कर रही थी। लेकिन, ब्राह्मण स्वाभिमान के तथाकथित, स्वयंभू प्रतीक हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी पर दांव लगाना बसपा के काम नहीं आया। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को 2,95,000 वोट मिले जबकि, हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर को 1,64,000 यानी लड़ाई में बहुत फासला था। कुल मिलाकर चंद्रशेखर का बेटा चंद्रेशखर से भी ज्यादा वोटों से जीतकर संसद पहुंच गया।
कांग्रेस की तो वैसे भी उत्तर प्रदेश में कोई गिनती है नहीं तो, फिर बलिया में अचानक होने की कोई वजह भी नहीं थी। लेकिन, यहां बीजेपी की जो दुर्गति हुई वो, देखने लायक है। भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता और एक जमाने में चंद्रशेखर के ही प्रिय शिष्यों में गिने जाने वाले वीरेंद्र सिंह को सिर्फ 22,000 वोट मिले। यानी साफ है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के समय वाले ही हालात हैं। सीधी लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही है।
यही समीकरण 2009 के लोकसभा चुनाव तक भी बना हुआ दिख रहा है। और, अगर यही रहा तो, 2009 में भाजपा की ओर से ‘Ex PM in Waiting’ लाल कृष्ण आडवाणी 2009 लोकसभा चुनाव के बाद ‘Ex PM in Waiting’ हो जाएंगे। बलिया लोकसभा उपचुनाव के नतीजे का संदेश मुझे तो साफ दिख रहा है। आप लोगों की क्या राय है बताइए।
Saturday, January 5, 2008
50 साल का हो गया इलाहाबाद का कॉफी हाउस
इलाहाबाद का कॉफी हाउस। शहर के सबसे पॉश इलाके सिविल लाइंस में रेलवे के नजदीक बसा ये कॉफी हाउस इलाहाबाद की खास संस्कृति का वाहक, पहचान रहा है। ये खास पहचान थी, इलाहाबाद की कला साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति में खास भूमिका की। वो, भूमिका जो, याद दिलाती है कला, साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद की अगुवाई की। माना ही ये जाता है कि कोई इस शहर से गुजर भी गया तो, साहित्य, संस्कृति और राजनीति के दांव-पेंच से अछूता, अपरिचित तो रह ही नहीं सकता।
एक जमाने में मशहूर प्रकाशन लोकभारती, नीलाभ, हंस, शारदा, अनादि, परिमल इलाहाबाद शहर में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से निकली साहित्यकारों से निकली टोली का जमावड़ा यहां होता था। अस्सी के दशक तक इलाहाबाद का कॉफी हाउस देश की राजनीति और साहित्य में सबसे ज्यादा प्रासंगिक था। यहां के सफेद फीते वाली ड्रेस में सजे सिर पर लाल फीत वाली लटकती टोपी को सिर पर सजाए बेयरे पूरी अंग्रेजी नफासत के साथ लोगों को कॉफी सर्व करते थे। और, बेहद पुरानी स्टाइल की चौकोर मेज के चारों तरफ राजनीति और साहित्य के साथ देश की दशा-दिशा पर जोरदार बहस यहां किसी भी समय सुनने को मिल जाती थी।
राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता और हेमवती नंदन बहुगुणा यहां राजनीतिक गुणा-गणित का हिसाब लगा रहे होते थे तो, इसी कॉफी हाउस में फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा जैसे देश के दिग्गज साहित्यकारों का दरबार लगा रहता था। और, इनकी बहसों से निकलने वाली बातें इलाहाबाद के आम लोगों की चर्चा मे अनायास ही शामिल हो जाती थीं। उपेंद्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे लोगों की चर्चा में लोगों की इनकी अगली कहानी के प्लॉट मिलते थे। कमलेश्वर जब भी इलाहाबाद में होते थे, कॉफी हाउस जरूर जाते थे। दूधनाथ सिंह तो, अब भी इलाहाबाद में कॉफी हाउस में कभी-गोल जमाए मिल सकते हैं।
लेकिन, आज 50 साल बाद शहर की इस खास पहचान के बारे में शहर के लोगों को भी बहुत कुछ खास पता नहीं रह गया है। यहां तक कि हाल ये है कि कला, साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाला कॉफी हाउस में अब चंद ही ऐसी रुचि के लोग मिलते हैं। अब ज्यादातर समय इस कॉफी हाउस में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ वकील, कुछ पुराने नेता, कुछ ऐसे बुजुर्ग जो, पुराने दिन याद करने चले आते हैं या फिर कुछ ऐसे लोग जो, कॉफी हाउस में बैठने की बस परंपरा निभाने के लिए ही बने हैं यानी एकदम खाली हैं।
कमाल तो है कि इलाहाबाद के इंडियन कॉफी हाउस के सामने सड़क पर अंबर कैफे खुला। ये कैफे खुला तो था सड़क पर अपना धंधा जमाने के लिए। लेकिन, कॉफी हाउस के सामने सड़क पर इसका खुलना ऐसा हो गया है कि नए जमाने के लड़के-लड़कयों को तो शायद ही अब असली कॉफी हाउस का पता होगा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराने-नए नेताओं का जमावड़ा भी इसी अंबर कैफे पर ही होता है। लेकिन, कॉफी हाउस की पुरानी पहचान आज भी शहर के लोगों को रोमांचित करती है। इलाहाबाद के कॉफी हाउस से जुड़ी बहुत कम बातों की जानकारी के लिए मुझे माफ करिएगा। और, अगर इलाहाबाद में पुराने दौर से जुड़ा आपमें से कोई इस कॉफी हाउस से जुड़े कुछ और रोचक या जानकारी बढ़ाने वाली बात जोड़ सके तो, स्वागत है।
अब भी समझ जाओ भइया नहीं तो बड़ी मुश्किल होगी
देश के इतिहास में ये पहली बार हुआ है कि किसी सांसद के खिलाफ पुलिस ने अपराधियों की तरह स्केच जारीकर उसे भगोड़ा घोषित कर दिया। माननीय (मुझे ये लिखते हुए शर्म आ रही है) सांसदों की सुरक्षा के लिए लगी रहने वाली पुलिस एक सांसद की तलाश में पिछले कई महीनों से घूम रही है। सफलता नहीं मिली तो, सांसद के चेहरे के सात संभव तरीके वाले स्केच जारी किए।
ये सांसद हैं इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से सांसद अतीक अहमद। अतीक अहमद पर वैसे तो इतने अपराधिक मामले और आरोप दर्ज हैं कि उनकी बिना पर ही सांसद को दो-तीन जन्म तो जेल में काटने ही पड़ सकते हैं। लेकिन, एक अपराधी से लगातार चार बार विधायक और फिर उसी जिले की एक सीट से अतीक को संसद का भी सफर करने का रास्ता मिल गया।
अतीक उस फूलपुर सीट से सांसद हैं जहां से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु सांसद थे। और, जिस सीट से दलित चेतना के प्रणेता कांशीराम को चुनाव हारना पड़ा था। अतीक पर आरोप सामान्य नहीं है। सांसद अतीक और उनके विधायक भाई अशरफ पर बसपा से विधायक चुने गए राजू पाल की हत्या का आरोप है। इलाहाबाद की शहर पश्चिमी सीट से लगातार चार बार विधायक अतीक ने जब अपनी विधानसभा सीट अपनी पैतृक संपत्ति समझकर आपने छोटे भाई अशरफ को सौंपी तो, समाजवादी पार्टी ने जिताऊ गणित के तहत अशरफ को टिकट भी दे दिया। क्योंकि, 2004 में अतीक को फूलपुर से लोकसभा से चुनाव लड़ना था।
लेकिन, बरसों से अतीक के आतंकराज से डरी-सहमी-ऊबी जनता ने नवंबर 2004 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा के राजू पाल को जिता दिया। राजू पाल भी अपराधी था लेकिन, जनता को लगा कि अतीक से तो बेहतर ही होगा। लेकिन, जनता को क्या पता था कि पैतृक विरासत छिनने पर कोई अपराधी क्या-क्या कर सकता है। आरोप है कि अतीक अहमद और अतीक के छोटे भाई अशरफ ने मिलकर राजू पाल की हत्या की साजिश रची और हत्या करवा दी। सपा के शासन में ये सब हुआ था तो, पार्टी के ही बाहुबली सांसद और उसके छोटे भाई के खिलाफ कोई कार्रवाई कैसे हो सकती थी। कुछ हुआ भी नहीं।
25 जनवरी 2005 को राजू पाल की हत्या हुई थी उसके बाद हुए दूसरे उपचुनाव में अतीक का छोटा भाई अशरफ जीतकर विधानसभा पहुंच गया। लेकिन, जब 2007में राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए तो, अतीक, अशरफ के साथ पूरे राज्य सपा के पापों का घड़ा भर चुका था और पश्चिमी विधानसभा से अपराधी अशरफ और राज्य से अपराधियों की सरकार कही जाने वाली सपा सरकार गायब हो गगई और राजू पाल की पत्नी पूजा पाल विधायक हो गई।
उत्तर प्रदेश में ही एक और फैसला आया है। उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने फैसला किया है कि उत्तर प्रदेश में पक्षी विहार प्रतापगढ़ की कुंडा तहसील में बेंती में ही बनेगा। बेंती अब भी रजवाड़ा है और बाहुबली उदय सिंह और सामान्य अपराधी से नेता, विधायक और मंत्री तक बन चुके उनके बेटे रघुराज प्रताप सिंह के आतंक से त्रस्त है। मायावती के शासन में बेंती में रजवाड़े के अवैध कब्जे वाली झील को पक्षी विहार बनाया गया और सरकार ने लाखों रुपए खर्च करके वहां पर पक्षी विहार बनाया। बसपा की सरकार गई और सपा की सरकार आ गई। बस इतने से ही सारा मामला बदल गया अपराधी कहे जा रहे रघुराज प्रताप सिंह सपा की सरकार में मंत्री बन गए। अब सरकारी पैसे से बना पक्षी विहार राजा रघुराज प्रताप सिंह की निजी संपत्ति बन गया । लेकिन, अच्छा हुआ कि मायावती ने फिर से सरकारी पैसे का दुरुपयोग और एक बाहुबली के आतंक को थोड़ा कम करने की कोशिश की।
उत्तर प्रदेश सरकार का इलाहाबाद के एक अपराधी सांसद और उसके छोटे अपराधी भाई और उससे सटे प्रतापगढ़ जिले के एक रजवाड़े (अब विधायक) के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान निश्चित तौर पर काबिले तारीफ है। ये गलत कामों के खिलाफ चल रहा अभियान है। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये अभियान इसीलिए चल रहा है क्योंकि, इन दोनों ने समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान मायावती से निजी पंगा ले लिया था। और, एक मुख्यमंत्री की निजी रुचि लेने की वजह से ही ये सब हो पा रहा है।
सवाल ये है कि क्या एक सरकार बदलने की वजह से ही सिर्फ अपराधी है या नहीं ये तय होता है। मायावती की ही सरकार में उनके कई मंत्री, विधायक, नेता अपराध कर रहे हैं और पुलिस उन्हें सलामी बजा रही है। अतीक अहमद और अशरफ को भी पुलिस की सुरक्षा मिली हुई थी। क्या वो पुलिस भी उन्हें बचाने में लगी रही जो, अब तक उन दोनों अपराधियों को पुलिस पकड़ नहीं सकी। सांसद अतीक के खिलाफ यूपी पुलिस ने संसद से अपील की है कि वो, अपराधी अतीक को शरण न दे। लेकिन, देश में उत्कृष्ट मापदंड की बात करने वाले सभी पार्टियों के नेता क्या अतीक जैसे अपराधी को संसद में अब तक शरण नहीं दे रहे थे।
फिर सब कुछ जानते-बूझते इस तरह के सवाल पहेली क्यों बने हुए हैं। जिसका खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ता है। लेकिन, शायद जनता खुद ही इसकी जिम्मेदार है क्योंकि, हो सकता है अगले लोकसभा चुनाव में अतीक को वो फिर से सांसद और उसके छोटे भाई अशरफ को विधायक बना दे। साफ है सरकार बदली या फिर केंद्र में कहीं सपा के समर्थन से कोई लंगड़ी सरकार बनने की नौबत आई तो, अतीक जैसे लोग दिल्ली में शाही मेहमाननवाजी का भी मजा पा सकते हैं। लोकतंत्र की कुछ बड़ी खामियों में से ये सबसे बड़ी है।
ये सांसद हैं इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से सांसद अतीक अहमद। अतीक अहमद पर वैसे तो इतने अपराधिक मामले और आरोप दर्ज हैं कि उनकी बिना पर ही सांसद को दो-तीन जन्म तो जेल में काटने ही पड़ सकते हैं। लेकिन, एक अपराधी से लगातार चार बार विधायक और फिर उसी जिले की एक सीट से अतीक को संसद का भी सफर करने का रास्ता मिल गया।
अतीक उस फूलपुर सीट से सांसद हैं जहां से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु सांसद थे। और, जिस सीट से दलित चेतना के प्रणेता कांशीराम को चुनाव हारना पड़ा था। अतीक पर आरोप सामान्य नहीं है। सांसद अतीक और उनके विधायक भाई अशरफ पर बसपा से विधायक चुने गए राजू पाल की हत्या का आरोप है। इलाहाबाद की शहर पश्चिमी सीट से लगातार चार बार विधायक अतीक ने जब अपनी विधानसभा सीट अपनी पैतृक संपत्ति समझकर आपने छोटे भाई अशरफ को सौंपी तो, समाजवादी पार्टी ने जिताऊ गणित के तहत अशरफ को टिकट भी दे दिया। क्योंकि, 2004 में अतीक को फूलपुर से लोकसभा से चुनाव लड़ना था।
लेकिन, बरसों से अतीक के आतंकराज से डरी-सहमी-ऊबी जनता ने नवंबर 2004 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा के राजू पाल को जिता दिया। राजू पाल भी अपराधी था लेकिन, जनता को लगा कि अतीक से तो बेहतर ही होगा। लेकिन, जनता को क्या पता था कि पैतृक विरासत छिनने पर कोई अपराधी क्या-क्या कर सकता है। आरोप है कि अतीक अहमद और अतीक के छोटे भाई अशरफ ने मिलकर राजू पाल की हत्या की साजिश रची और हत्या करवा दी। सपा के शासन में ये सब हुआ था तो, पार्टी के ही बाहुबली सांसद और उसके छोटे भाई के खिलाफ कोई कार्रवाई कैसे हो सकती थी। कुछ हुआ भी नहीं।
25 जनवरी 2005 को राजू पाल की हत्या हुई थी उसके बाद हुए दूसरे उपचुनाव में अतीक का छोटा भाई अशरफ जीतकर विधानसभा पहुंच गया। लेकिन, जब 2007में राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए तो, अतीक, अशरफ के साथ पूरे राज्य सपा के पापों का घड़ा भर चुका था और पश्चिमी विधानसभा से अपराधी अशरफ और राज्य से अपराधियों की सरकार कही जाने वाली सपा सरकार गायब हो गगई और राजू पाल की पत्नी पूजा पाल विधायक हो गई।
उत्तर प्रदेश में ही एक और फैसला आया है। उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने फैसला किया है कि उत्तर प्रदेश में पक्षी विहार प्रतापगढ़ की कुंडा तहसील में बेंती में ही बनेगा। बेंती अब भी रजवाड़ा है और बाहुबली उदय सिंह और सामान्य अपराधी से नेता, विधायक और मंत्री तक बन चुके उनके बेटे रघुराज प्रताप सिंह के आतंक से त्रस्त है। मायावती के शासन में बेंती में रजवाड़े के अवैध कब्जे वाली झील को पक्षी विहार बनाया गया और सरकार ने लाखों रुपए खर्च करके वहां पर पक्षी विहार बनाया। बसपा की सरकार गई और सपा की सरकार आ गई। बस इतने से ही सारा मामला बदल गया अपराधी कहे जा रहे रघुराज प्रताप सिंह सपा की सरकार में मंत्री बन गए। अब सरकारी पैसे से बना पक्षी विहार राजा रघुराज प्रताप सिंह की निजी संपत्ति बन गया । लेकिन, अच्छा हुआ कि मायावती ने फिर से सरकारी पैसे का दुरुपयोग और एक बाहुबली के आतंक को थोड़ा कम करने की कोशिश की।
उत्तर प्रदेश सरकार का इलाहाबाद के एक अपराधी सांसद और उसके छोटे अपराधी भाई और उससे सटे प्रतापगढ़ जिले के एक रजवाड़े (अब विधायक) के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान निश्चित तौर पर काबिले तारीफ है। ये गलत कामों के खिलाफ चल रहा अभियान है। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये अभियान इसीलिए चल रहा है क्योंकि, इन दोनों ने समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान मायावती से निजी पंगा ले लिया था। और, एक मुख्यमंत्री की निजी रुचि लेने की वजह से ही ये सब हो पा रहा है।
सवाल ये है कि क्या एक सरकार बदलने की वजह से ही सिर्फ अपराधी है या नहीं ये तय होता है। मायावती की ही सरकार में उनके कई मंत्री, विधायक, नेता अपराध कर रहे हैं और पुलिस उन्हें सलामी बजा रही है। अतीक अहमद और अशरफ को भी पुलिस की सुरक्षा मिली हुई थी। क्या वो पुलिस भी उन्हें बचाने में लगी रही जो, अब तक उन दोनों अपराधियों को पुलिस पकड़ नहीं सकी। सांसद अतीक के खिलाफ यूपी पुलिस ने संसद से अपील की है कि वो, अपराधी अतीक को शरण न दे। लेकिन, देश में उत्कृष्ट मापदंड की बात करने वाले सभी पार्टियों के नेता क्या अतीक जैसे अपराधी को संसद में अब तक शरण नहीं दे रहे थे।
फिर सब कुछ जानते-बूझते इस तरह के सवाल पहेली क्यों बने हुए हैं। जिसका खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ता है। लेकिन, शायद जनता खुद ही इसकी जिम्मेदार है क्योंकि, हो सकता है अगले लोकसभा चुनाव में अतीक को वो फिर से सांसद और उसके छोटे भाई अशरफ को विधायक बना दे। साफ है सरकार बदली या फिर केंद्र में कहीं सपा के समर्थन से कोई लंगड़ी सरकार बनने की नौबत आई तो, अतीक जैसे लोग दिल्ली में शाही मेहमाननवाजी का भी मजा पा सकते हैं। लोकतंत्र की कुछ बड़ी खामियों में से ये सबसे बड़ी है।
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