उत्तर प्रदेश में मायाराज के दरबारी सत्ता के मद में पगला गए हैं। 5 साल के लिए मायावती को प्रदेश की जनता ने सत्ता दी थी कि वो स्थिरता के साथ प्रदेश को उसकी खोई प्रतिष्ठा वापस लौटाए। मायावती ने सत्ता में आने के बाद प्रदेश से गुंडाराज, जंगलराज खत्म करने का भरोसा दिलाया। लेकिन, अब हाल ये है कि मायाराज में सत्ता में शामिल लोगों के अलावा किसी की भी इज्जत सुरक्षित नहीं है।
मायावती की बसपा के 3 नेताओं के काले कारनामे की वजह से प्रदेश के लोगों का डर अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि एक और विधायक ने बसपा के जंगलराज को और पुख्ता कर दिया। इस बार मामला और संगीन है। वाकया बनारस का है। एक महिला का पति दूसरी शादी कर रहा था। उसे रोकने के लिए महिला कुछ पत्रकारों को साथ लेकर शादी में पहुंच गई। लेकिन, महिला को अंदाजा नहीं था कि मायाराज में लोकतंत्र खत्म हो चुका है।
महिला के पति की दूसरी शादी में बसपा के विधायक शेर बहादुर सिंह भी मौजूद थे। पहले महिला को स्टेज से धक्का दिया गया। और, जब पता चला कि महिला पत्रकारों को लेकर आई है, शेर बहादुर सिंह के अहम को चोट लग गई। विधायक और उनके आदमियों ने पत्रकारों को पकड़कर पीटना शुरू किया। कैमरामैन, रिपोर्टर सबको 5-6 आदमी एक साथ मिलकर पीट रहे थे। राइफल, पिस्तौल के बट से पत्रकारों को पीटा गया पत्रकारों के शरीर पर खून के जमे हुए निशान बता रहे हैं कि उनकी किस बेरहमी से पिटाई की गई है।
लेकिन, मायाराज में बसपा विधायक की गुंडागर्दी इतने पर ही खत्म नहीं हुई। विधायिका बेलगाम थी तो, फिर सत्ता चलाने वालों के लिए ही कानून की रखवाली करने वाले पुलिस वाले कैसे पीछे रहते। थाने में विधायक के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने पहुंचे पत्रकारों को फिर से पुलिस ने दौड़ाकर पीटना शुरू कर दिया। लेकिन, मायावती के अपने गुंडाराज, जंगलराज में आतंक के काले कारनामे अभी और बाकी थे। चोट खाए, गुस्साए पत्रकारों ने मायावती का पुतला फूंकने की कोशिश की। तो, मायावती की निजी पुलिस की तरह काम कर रही उत्तर प्रदेश पुलिस आपे से बाहर हो गई। फिर से पत्रकारों को पीटा गया।
यहां सवाल सिर्फ पत्रकारों के पिटने का नहीं है। सवाल ये है कि क्या बसपा के राज में बसपा के नेताओं विधायकों और पुलिस वालों को कानून को ठेंगे रखने का हक मिल गया है। कानूनन कोई भी व्यक्ति एक महिला से शादी करने के बाद दूसरी महिला से शादी नहीं कर सकता जब तक कि उसको तलाक न मिल जाए। लेकिन, बसपा विधायक के प्रिय व्यक्ति पहली बीवी से बिना तलाक के ही दूसरी शादी कर रहे थे। इस तरह से विधायक शेर बहादुर सिंह भी कानून तोड़ने को दोषी हुए। उसके बाद तो विधायक ने कानून की ऐसी धज्जियां उड़ाईं जो, उत्तर प्रदेश के इतिहास में काले कारनामे में दर्ज हो गया है। लेकिन, पता नहीं अब इन घटनाओं को काला कारनामा माना भी जाता है या नहीं।
इसके बाद सरकारी खानापूरी करने के लिए विधायक शेर बहादुर सिंह, सीओ संसार सिंह और इंस्पेक्टर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। लेकिन, साथ ही पत्रकारों के खिलाफ भी कई मामले दर्ज कर दिए गए। अब जब पत्रकारों के खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया है तो, साफ है विधायक और दूसरे आरोपियों पर कोई कार्रवाई क्यों की जाएगी। 3 साल के शासन के बाद मुलायम राज में रहना दूभर हुआ था। अब बसपा का हाथी तो पूरे उत्तर प्रदेश को ही जंगल बनाकर उसे बरबाद करने पर जुटा गया है। उत्तर प्रदेश का अब राम भला करें।
Tuesday, November 27, 2007
Tuesday, November 20, 2007
उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं की इज्जत खतरे में है
दलित स्वाभिमान, दलित चेतना, बहुजन हित, जिसकी जितनी भागीदारी, उसके उतनी हिस्सेदारी—ये सारे नारे उत्तर प्रदेश में बेइज्जत हो रहे हैं। बहनजी की सरकार है। वही बहनजी कांशीराम के कंधे पर सवार होकर कर्कश आवाज में तिलक, तराजू और तलवार उनको मारो जूते चार जैसे नारे लगाकर और फिर ऊंची जातियों को सर-आंखों पर बिठाकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने वाली। देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री मायावती के राज में कितनी दलित महिलाओं की इज्जत लूटी जा रही है इसकी संख्या तो बताना संभव नहीं है लेकिन, कुछ घटनाएं साफ कर देती हैं कि इस राज्य में महिलाओं, खासकर दलित महिलाओं की इज्जत बचनी मुश्किल हो रही है।
आनंदसेन यादव- फैजाबाद से विधायक (पूर्व मंत्री), लोकेंद्र शर्मा- बदायूं से विधायक, सुनील बाबू- कानपुर के बसपा नेता। इन तीनों में कई समानताएं हैं। इन तीनों पर बहनजी का वरदहस्त है। ये तीनों दबंग हैं। ये तीनों दलित महिलाओं से बलात्कार के मामले में आरोपी हैं। और, ये तीनों खुलेआम सीना तानकर घूम रहे हैं लेकिन, इनका कोई कुछ बिगाड़ने की हैसियत में नहीं है, कम से कम उत्तर प्रदेश में तो बिल्कुल ही नहीं।
मायावती सरकार में मंत्री आनंदसेन यादव को एक बसपा कार्यकर्ता की बेटी के अपहरण और उसकी हत्या के आरोप लगने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। आनंदसेन यादव से मंत्री पद तो चला गया लेकिन, अब तक उनके खिलाफ कोई मामला नहीं दर्ज हो सका है। जबकि, इस बात के पक्के सुबूत हैं कि आनंदसेन और बसपा कार्यकर्ता की बेटी के बीच कैसे संबंध थे।
अभी शशि के घरवाले शशि का पता तक नहीं लगा पाए थे कि एक और दलित महिला की इज्जत खुलेआम लूटे जाने की खबर आ गई। बदायूं के बसपा विधायक लोकेंद्र शर्मा ने एक दलित महिला की इज्जत लूटी। करीब महीने भर तक उसे अपने साथ रखा। और, जब मन भर गया तो, उसकी शादी सक दोगुनी उम्र के आदमी से करा दी। वो किसी तरह बचकर भागी गुहार लगाई लेकिन, दलितों की गुहार सत्ता के ऊंचे सिंहासन पर बैठी बहनजी के कानों तक पहुंच ही नहीं पा रही है।
और, आज तो हद हो गई। कानपुर में उत्तर प्रदेश की पुलिस समीक्षा बैठक में एक ऐसा अपराधी सीना ताने प्रदेश के गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक के सामने घूम रहा था जिसके ऊपर एक दर्जन से ज्यादा अपराधिक मामले हैं। उसमें भी एक ताजा मामला एक दलित महिला से बलात्कार का है। सुनील बाबू नाम के इस बसपा नेता की दबंगई का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वो पुलिस समीक्षा बैठक में प्रदेश के आला पुलिस अफसरों के साथ था। सुनील बाबू इतने से ही नहीं माना। बलात्कार के मामले में उसके खिलाफ गवाही देने वाली महिला के पति को दिन दहाड़े घर से सुनील बाबू और उसके गंडों ने उठा लिया। अब तक उसका कोई पता नहीं।
ये कुछ घटनाएं हैं जो, मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की जल्दबाजी की वजह से सामने आ गई। ऐसे जाने कितने मामले होंगे जो, सामने आ ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को तो प्रदेश में अपराध, भ्रष्टाचार, जंगलराज समाजवादी पार्टी की सरकार जाने के साथ ही खत्म हो गया दिखता है।
आनंदसेन यादव- फैजाबाद से विधायक (पूर्व मंत्री), लोकेंद्र शर्मा- बदायूं से विधायक, सुनील बाबू- कानपुर के बसपा नेता। इन तीनों में कई समानताएं हैं। इन तीनों पर बहनजी का वरदहस्त है। ये तीनों दबंग हैं। ये तीनों दलित महिलाओं से बलात्कार के मामले में आरोपी हैं। और, ये तीनों खुलेआम सीना तानकर घूम रहे हैं लेकिन, इनका कोई कुछ बिगाड़ने की हैसियत में नहीं है, कम से कम उत्तर प्रदेश में तो बिल्कुल ही नहीं।
मायावती सरकार में मंत्री आनंदसेन यादव को एक बसपा कार्यकर्ता की बेटी के अपहरण और उसकी हत्या के आरोप लगने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। आनंदसेन यादव से मंत्री पद तो चला गया लेकिन, अब तक उनके खिलाफ कोई मामला नहीं दर्ज हो सका है। जबकि, इस बात के पक्के सुबूत हैं कि आनंदसेन और बसपा कार्यकर्ता की बेटी के बीच कैसे संबंध थे।
अभी शशि के घरवाले शशि का पता तक नहीं लगा पाए थे कि एक और दलित महिला की इज्जत खुलेआम लूटे जाने की खबर आ गई। बदायूं के बसपा विधायक लोकेंद्र शर्मा ने एक दलित महिला की इज्जत लूटी। करीब महीने भर तक उसे अपने साथ रखा। और, जब मन भर गया तो, उसकी शादी सक दोगुनी उम्र के आदमी से करा दी। वो किसी तरह बचकर भागी गुहार लगाई लेकिन, दलितों की गुहार सत्ता के ऊंचे सिंहासन पर बैठी बहनजी के कानों तक पहुंच ही नहीं पा रही है।
और, आज तो हद हो गई। कानपुर में उत्तर प्रदेश की पुलिस समीक्षा बैठक में एक ऐसा अपराधी सीना ताने प्रदेश के गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक के सामने घूम रहा था जिसके ऊपर एक दर्जन से ज्यादा अपराधिक मामले हैं। उसमें भी एक ताजा मामला एक दलित महिला से बलात्कार का है। सुनील बाबू नाम के इस बसपा नेता की दबंगई का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वो पुलिस समीक्षा बैठक में प्रदेश के आला पुलिस अफसरों के साथ था। सुनील बाबू इतने से ही नहीं माना। बलात्कार के मामले में उसके खिलाफ गवाही देने वाली महिला के पति को दिन दहाड़े घर से सुनील बाबू और उसके गंडों ने उठा लिया। अब तक उसका कोई पता नहीं।
ये कुछ घटनाएं हैं जो, मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की जल्दबाजी की वजह से सामने आ गई। ऐसे जाने कितने मामले होंगे जो, सामने आ ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को तो प्रदेश में अपराध, भ्रष्टाचार, जंगलराज समाजवादी पार्टी की सरकार जाने के साथ ही खत्म हो गया दिखता है।
Wednesday, November 14, 2007
राहुल गांधी को पता चल गया होगा कि उत्तर प्रदेश में असली मुश्किल क्या है
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी फिर कुछ खास नहीं कर पाई। फिर कुछ कास इसलिए कहना पड़ता है कि पिछले 18 साल से राज्य में पार्टी का हाल कुछ ऐसा ही है। लेकिन, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की तरफ से खास ये हुआ कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में कमान सौंपने के साफ संकेत दे दिए। राहुल ने जमकर मेहनत भी की। लेकिन, कोई जमीनी आधार न बचा होने से इसका परिणाम कुछ नहीं निकला।
अब लोकसभा चुनाव के पहले सोनिया ने एक बार फिर से राहुल गांधी को और मजबूत करके उत्तर प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा कांग्रेसी संसद में भेजने का जिम्मा सौंप दिया है। राहुल गांधी को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के महासचिव के साथ ही छात्र और युवा संगठन का जिम्मा दिया गया है। राहुल के साथ के लिए कई नौजवानों को उनके साथ लगाया गया है। लेकिन, उत्तर प्रदेश में असली मुश्किल क्या है ये राहुल गांधी को कांग्रेस महासचिव बनने के बाद अपनी पहली सांगठनिक यात्रा में ही पता चल गया।
सोमवार को राहुल गांधी लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। दिल्ली से उनके साथ उत्तर प्रदेश के नए-नवेले प्रभारी दिग्विजय सिंह थे। तो, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की नई-नवेली अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी लखनऊ में पूरे जोश के साथ उनके स्वागत के लिए थीं। प्रेस कांफ्रेंस शुरू होते ही पत्रकारों ने सवालों की बौछार शुरू की तो, कभी माइक बॉक्स प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी अपनी तरफ खींचकर जवाब देने लगतीं तो, कभी प्रदेश प्रभारी राहुल बाबा को बचाने में अपने वाक कौशल का इस्तेमाल करने लगते।
इसी बीच किसी पत्रकार ने कह दिया कि राहुल गांधी को बोलना नहीं आता क्या। सवाल तो, उन्हीं से किए जा रहे हैं। खिसियाए राहुल ने माइक लेकर कहा कि आप लोगों को क्या लगता है कि मुझे बोलना नहीं आता। अब मैं आप लोगों को बोलकर दिखाता हूं। वैसे तो, रीता जोशी और दिग्विजय सिंह दोनों ही राहुल बाबा के सुरक्षा कवच बनने की कोशिश भर कर रहे थे। लेकिन, कांग्रेस की असली बीमारी यही है। यहां बोलने वाले नेता बहुत ढेर सारे हैं। इतने कि मंच टूट जाते हैं लेकिन, मंच के नीचे नेताओं को सुनने के लिए कार्यकर्ता नहीं मिलते।
कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में एक और बड़ी बीमारी है। इस राज्य में कांग्रेस के बहुत बड़े-बडे नेता हैं। हर शहर में ये नेता दूसरी किसी भी पार्टी के नेता से मजबूत हैं। इनके पास कार्यकर्ता भी हैं। लेकिन, वो कार्यकर्ता कांग्रेस के लिए सिर्फ अपने नेताजी को मजबूत करने के लिए काम करता है। अपने नेता को मजबूत करने के इसी चक्कर में अक्सर एक बडे कांग्रेसी नेताजी के कार्यकर्ता दूसरे बड़े कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ भिड़ जाते हैं। ऐसा भिड़ते हैं कि कांग्रेस कमजोरी हो जाती है।
नई-नवेली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के अपने शहर इलाहाबाद में तो ये आम बात है। विधानमंडल दल के नेता प्रमोद तिवारी, पूर्व जिलाध्यक्ष अशोक बाजपेयी और रीता जोशी के समर्थकों के बीच अकसर किसी राष्ट्रीय नेता के सामने अपनी हैसियत दिखाने के लिए मारपीट हो जाती थी। अच्छा हुआ कि रीता के चिर प्रतिद्वंदी अशोक बाजपेयी अब बसपा में मायावती जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। और, इलाहाबाद से ही लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी भी कर रहे हैं।
राहुल गांधी को शायद उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की असली हैसियत का अंदाजा और इसे फिर से मजबूत करने में आने वाली असली मुश्किल भी पता चल गई होगी। इसीलिए जाते-जाते राहुल ने कहा- हमें अपनी पार्टी के भीतरघातियों से सबसे ज्यादा परेशानी हो सकती है। अब अगर ये बात प्रदेश के बड़े कांग्रेसियों की समझ में आती है तो, शायद राहुल की उत्तर प्रदेश योजना लोकसभा चुनावों में कुछ असर कर पाए। क्योंकि, रीता बहुगुणा जोशी और दिग्विजय सिंह लोगों को जोड़ने और राजनीतिक जोड़-तोड़ की बेजोड़ क्षमता तो रखते ही हैं।
अब लोकसभा चुनाव के पहले सोनिया ने एक बार फिर से राहुल गांधी को और मजबूत करके उत्तर प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा कांग्रेसी संसद में भेजने का जिम्मा सौंप दिया है। राहुल गांधी को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के महासचिव के साथ ही छात्र और युवा संगठन का जिम्मा दिया गया है। राहुल के साथ के लिए कई नौजवानों को उनके साथ लगाया गया है। लेकिन, उत्तर प्रदेश में असली मुश्किल क्या है ये राहुल गांधी को कांग्रेस महासचिव बनने के बाद अपनी पहली सांगठनिक यात्रा में ही पता चल गया।
सोमवार को राहुल गांधी लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। दिल्ली से उनके साथ उत्तर प्रदेश के नए-नवेले प्रभारी दिग्विजय सिंह थे। तो, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की नई-नवेली अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी लखनऊ में पूरे जोश के साथ उनके स्वागत के लिए थीं। प्रेस कांफ्रेंस शुरू होते ही पत्रकारों ने सवालों की बौछार शुरू की तो, कभी माइक बॉक्स प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी अपनी तरफ खींचकर जवाब देने लगतीं तो, कभी प्रदेश प्रभारी राहुल बाबा को बचाने में अपने वाक कौशल का इस्तेमाल करने लगते।
इसी बीच किसी पत्रकार ने कह दिया कि राहुल गांधी को बोलना नहीं आता क्या। सवाल तो, उन्हीं से किए जा रहे हैं। खिसियाए राहुल ने माइक लेकर कहा कि आप लोगों को क्या लगता है कि मुझे बोलना नहीं आता। अब मैं आप लोगों को बोलकर दिखाता हूं। वैसे तो, रीता जोशी और दिग्विजय सिंह दोनों ही राहुल बाबा के सुरक्षा कवच बनने की कोशिश भर कर रहे थे। लेकिन, कांग्रेस की असली बीमारी यही है। यहां बोलने वाले नेता बहुत ढेर सारे हैं। इतने कि मंच टूट जाते हैं लेकिन, मंच के नीचे नेताओं को सुनने के लिए कार्यकर्ता नहीं मिलते।
कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में एक और बड़ी बीमारी है। इस राज्य में कांग्रेस के बहुत बड़े-बडे नेता हैं। हर शहर में ये नेता दूसरी किसी भी पार्टी के नेता से मजबूत हैं। इनके पास कार्यकर्ता भी हैं। लेकिन, वो कार्यकर्ता कांग्रेस के लिए सिर्फ अपने नेताजी को मजबूत करने के लिए काम करता है। अपने नेता को मजबूत करने के इसी चक्कर में अक्सर एक बडे कांग्रेसी नेताजी के कार्यकर्ता दूसरे बड़े कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ भिड़ जाते हैं। ऐसा भिड़ते हैं कि कांग्रेस कमजोरी हो जाती है।
नई-नवेली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के अपने शहर इलाहाबाद में तो ये आम बात है। विधानमंडल दल के नेता प्रमोद तिवारी, पूर्व जिलाध्यक्ष अशोक बाजपेयी और रीता जोशी के समर्थकों के बीच अकसर किसी राष्ट्रीय नेता के सामने अपनी हैसियत दिखाने के लिए मारपीट हो जाती थी। अच्छा हुआ कि रीता के चिर प्रतिद्वंदी अशोक बाजपेयी अब बसपा में मायावती जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। और, इलाहाबाद से ही लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी भी कर रहे हैं।
राहुल गांधी को शायद उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की असली हैसियत का अंदाजा और इसे फिर से मजबूत करने में आने वाली असली मुश्किल भी पता चल गई होगी। इसीलिए जाते-जाते राहुल ने कहा- हमें अपनी पार्टी के भीतरघातियों से सबसे ज्यादा परेशानी हो सकती है। अब अगर ये बात प्रदेश के बड़े कांग्रेसियों की समझ में आती है तो, शायद राहुल की उत्तर प्रदेश योजना लोकसभा चुनावों में कुछ असर कर पाए। क्योंकि, रीता बहुगुणा जोशी और दिग्विजय सिंह लोगों को जोड़ने और राजनीतिक जोड़-तोड़ की बेजोड़ क्षमता तो रखते ही हैं।
Friday, November 9, 2007
क्या आपको कल्याण सिंह-कलराज मिश्र याद हैं?
जी हां, मैं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ही बात कर रहा हूं। 1991 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी के नेता कल्याण सिंह। वही हर बात पर, सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा लगाने वाले कल्याण सिंह। क्या आपको पता है कि कल्याण सिंह अब क्या कर रहे हैं।
कलराज मिश्र, जी हां, वही जो भाजपा में संगठन का काम संभालने के उस्ताद माने जाते थे। लेकिन, कभी भी आजतक एक बार भी विधानसभा का चुनाव नहीं जीत पाए, विधानपरिषद और राज्यसभा के जरिए ही सत्ता का सुख लेते रहे। कलराज मिश्र और कल्याण सिंह को आपने कितने दिनों-महीनों से किसी टीवी चैनल या फिर अखबार में कोई बयानबाजी करते नहीं देखा। शायद महीनों से नहीं। अखबारों के स्थानीय संस्करणों में छपने को छोड़ दे तो।
अब सवाल ये है कि मैं आज अचानक इन दोनों नेताओं की चर्चा क्यों कर रहा हूं, जब मीडिया, इनकी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता और जनता भी इन्हें नहीं पूछ रही। दरअसल इसी सवाल की वजह से मुझे इन दोनों नेताओं की याद आ गई।
6 दिसंबर 1992 को जब विवादित बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद कल्याण सिंह सहित देश के 4 राज्यों की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। उसके बाद भाजपा नेताओं के बीच सत्ता पाने के खेल में जो केल शुरू हुआ वही आज, वजह बन गया है कि इन दोनों नेताओं को याद करना पड़ रहा है कि वो कहां हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा के बारे में मुझे जितनी जानकारी है- कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की ही कार्यकुशलता का नतीजा था कि राज्य में बीजेपी राम लहर का फायदा उठाने में कामयाब हो पाई।
लेकिन, एक बार जब सत्ता का स्वाद इन्हें लगा तो, इन दोनों नेताओं के बीच शुरू हुई अहम की लड़ाई ने बीजेपी का बेड़ा गर्क कर दिया। अब तो, हाल ये है कि भाजपा कार्यालय पर इन दोनों नेताओं के आने पर भाजपा की नई पांत के नेता इन पर ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझते। लेकिन, अभी भी सच्चाई यही है कि इन दोनों नेताओं के भाजपा में किनारे पर होने की ही वजह है कि राज्य में भाजपा इतना किनारे हो गई है कि तीसरे नंबर की एक लगातार कमजोर होती पार्टी भर बन गई है।
भाजपा कार्यकर्ताओं को न तो, संगठन के किसी नेता पर भरोसा रह गया है। और, न ही राज्य में उन्हें कोई नेता नजर आ रहा है जो, मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम, मायावती के सामने दम से खड़ा हो सके। आज राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं जो, कल्याण सिंह की सरकार में शिक्षा मंत्री थे तो, रमापति राम त्रिपाठी प्रदेश अध्यक्ष हैं जो, कलराज मिश्र के प्रदेश अध्यक्ष रहते जिलाध्यक्ष से प्रदेश महामंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे।
राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन, अभी भी उत्तर प्रदेश के किसी भी विधानसभा क्षेत्र में 5 हजार लोगों की भी भीड़ अपने अकेले के दम पर नहीं जुटा पाते हैं। वोट कितना दिला पाते हैं इसका अंदाजा तो, विधानसभा के इस चुनाव से सबको लग ही गया होगा। कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की जोड़ी की जमीनी मजबूती का ही कमाल था कि भारत मां की तीन धरोहर – अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के लिए भाजपा कार्यकर्ता पलक पांवड़े बिछाए बैठे रहते थे। अब कोई इनको भी नहीं पूछ रहा। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाला कोई है ही नहीं।
इन दोनों ने अपने अहम की लड़ाई में खुद के राजनीतिक करियर के साथ ही भाजपा की भी जमीन खिसका दी। संघ के जातिवाद को खत्म करने के आदर्शों पर सामाजिक जीवन का काम शुरू करने वाले कल्याण लोधों के और कलराज मिश्र सिर्फ ब्राह्मणों के नेता बनने की कोशिश करने लगे। इस कोशिश में ये कितना सफल हुए इसके लिए बस ये मुहावरा ही काफी है कि – धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।
बीच में कल्याण सिंह कुसुम राय के प्रेमपाश (आरोप ऐसे ही लगते रहे हैं) में ऐसे फंसे कि संघ, भाजपा और अटल बिहारी उन्हें दागदार नजर आने लगे। राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर कल्याण सिंह ने मुलायम से भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया। हिंदुत्व के पुरोधा को जब सिर्फ 4 सीटें मिलीं तो, उनका दिमाग ठिकाने आया लेकिन, कुसुम राय की क्रांति ऐसी कि भाजपा में कुसुम को साथ लाने की शर्त पर ही लौटे।
इस विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा में संगठन मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे नागेंद्र नाथ ने नए लोगों को चुनाव में उतारकर प्रयोग करने की कोशिश की। नागेंद्र नाथ उत्तर प्रदेश और बिहार में विद्यार्थी परिषद के मुखिया रह चुके हैं और उन्होंने ABVP को लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और गोरखपुर विश्वविद्यालय में परिषद को स्थापित करने के लिए कई नए प्रयोग किए थे। उनके समय में तैयार हुआ विद्यार्थी परिषद का नेटवर्क अब उत्तर प्रदेश भाजपा में काम कर रहा है। नागेंद्र नाथ ने इस नौजवान टीम के 20 से ज्यादा लोगों को विधानसभा में टिकट दिया।
लेकिन, चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के पास न तो कोई मजबूत चेहरा था। न ही संगठन को संजोने वाला कोई नेता। उसकी वजह से विश्वविद्यालय की राजनीति से विधानसभा की राजनीति करने पहुंचे नेताओं को कोई ढंग का आधार ही नहीं मिल पाया। अब सवाल ये है कि मैं कल्याण-कलराज को याद क्यों कर रहा हूं। भाजपा के मजबूत होने का आधार क्यों ढूंढ़ रहा हूं।
दरअसल हम जैसे लोग जो, उत्तर प्रदेश को मायावती के सत्ता में आने के बाद सुधरता हुआ देख रहे थे। आनदंसेन यादव जैसे प्रकरणों के बाद हम जैसे लोगों को लग रहा है कि प्रदेश में मुलायम, मायावती के अलावा तीसरा कोई ध्रुव न होने से ये नेता निरंकुश हो गए हैं। और, इस बात से तो शायद ही किसी को संदेह होगा कि कल्याण सिंह से इमानदार मुख्यमंत्री शायद ही कोई हो। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते अपराधी और भ्रष्टाचारियों की तो प्रदेश में सिर उठाने की हिम्मत नहीं ही पड़ती।
कलराज मिश्र, जी हां, वही जो भाजपा में संगठन का काम संभालने के उस्ताद माने जाते थे। लेकिन, कभी भी आजतक एक बार भी विधानसभा का चुनाव नहीं जीत पाए, विधानपरिषद और राज्यसभा के जरिए ही सत्ता का सुख लेते रहे। कलराज मिश्र और कल्याण सिंह को आपने कितने दिनों-महीनों से किसी टीवी चैनल या फिर अखबार में कोई बयानबाजी करते नहीं देखा। शायद महीनों से नहीं। अखबारों के स्थानीय संस्करणों में छपने को छोड़ दे तो।
अब सवाल ये है कि मैं आज अचानक इन दोनों नेताओं की चर्चा क्यों कर रहा हूं, जब मीडिया, इनकी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता और जनता भी इन्हें नहीं पूछ रही। दरअसल इसी सवाल की वजह से मुझे इन दोनों नेताओं की याद आ गई।
6 दिसंबर 1992 को जब विवादित बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद कल्याण सिंह सहित देश के 4 राज्यों की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। उसके बाद भाजपा नेताओं के बीच सत्ता पाने के खेल में जो केल शुरू हुआ वही आज, वजह बन गया है कि इन दोनों नेताओं को याद करना पड़ रहा है कि वो कहां हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा के बारे में मुझे जितनी जानकारी है- कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की ही कार्यकुशलता का नतीजा था कि राज्य में बीजेपी राम लहर का फायदा उठाने में कामयाब हो पाई।
लेकिन, एक बार जब सत्ता का स्वाद इन्हें लगा तो, इन दोनों नेताओं के बीच शुरू हुई अहम की लड़ाई ने बीजेपी का बेड़ा गर्क कर दिया। अब तो, हाल ये है कि भाजपा कार्यालय पर इन दोनों नेताओं के आने पर भाजपा की नई पांत के नेता इन पर ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझते। लेकिन, अभी भी सच्चाई यही है कि इन दोनों नेताओं के भाजपा में किनारे पर होने की ही वजह है कि राज्य में भाजपा इतना किनारे हो गई है कि तीसरे नंबर की एक लगातार कमजोर होती पार्टी भर बन गई है।
भाजपा कार्यकर्ताओं को न तो, संगठन के किसी नेता पर भरोसा रह गया है। और, न ही राज्य में उन्हें कोई नेता नजर आ रहा है जो, मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम, मायावती के सामने दम से खड़ा हो सके। आज राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं जो, कल्याण सिंह की सरकार में शिक्षा मंत्री थे तो, रमापति राम त्रिपाठी प्रदेश अध्यक्ष हैं जो, कलराज मिश्र के प्रदेश अध्यक्ष रहते जिलाध्यक्ष से प्रदेश महामंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे।
राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन, अभी भी उत्तर प्रदेश के किसी भी विधानसभा क्षेत्र में 5 हजार लोगों की भी भीड़ अपने अकेले के दम पर नहीं जुटा पाते हैं। वोट कितना दिला पाते हैं इसका अंदाजा तो, विधानसभा के इस चुनाव से सबको लग ही गया होगा। कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की जोड़ी की जमीनी मजबूती का ही कमाल था कि भारत मां की तीन धरोहर – अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के लिए भाजपा कार्यकर्ता पलक पांवड़े बिछाए बैठे रहते थे। अब कोई इनको भी नहीं पूछ रहा। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाला कोई है ही नहीं।
इन दोनों ने अपने अहम की लड़ाई में खुद के राजनीतिक करियर के साथ ही भाजपा की भी जमीन खिसका दी। संघ के जातिवाद को खत्म करने के आदर्शों पर सामाजिक जीवन का काम शुरू करने वाले कल्याण लोधों के और कलराज मिश्र सिर्फ ब्राह्मणों के नेता बनने की कोशिश करने लगे। इस कोशिश में ये कितना सफल हुए इसके लिए बस ये मुहावरा ही काफी है कि – धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।
बीच में कल्याण सिंह कुसुम राय के प्रेमपाश (आरोप ऐसे ही लगते रहे हैं) में ऐसे फंसे कि संघ, भाजपा और अटल बिहारी उन्हें दागदार नजर आने लगे। राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर कल्याण सिंह ने मुलायम से भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया। हिंदुत्व के पुरोधा को जब सिर्फ 4 सीटें मिलीं तो, उनका दिमाग ठिकाने आया लेकिन, कुसुम राय की क्रांति ऐसी कि भाजपा में कुसुम को साथ लाने की शर्त पर ही लौटे।
इस विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा में संगठन मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे नागेंद्र नाथ ने नए लोगों को चुनाव में उतारकर प्रयोग करने की कोशिश की। नागेंद्र नाथ उत्तर प्रदेश और बिहार में विद्यार्थी परिषद के मुखिया रह चुके हैं और उन्होंने ABVP को लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और गोरखपुर विश्वविद्यालय में परिषद को स्थापित करने के लिए कई नए प्रयोग किए थे। उनके समय में तैयार हुआ विद्यार्थी परिषद का नेटवर्क अब उत्तर प्रदेश भाजपा में काम कर रहा है। नागेंद्र नाथ ने इस नौजवान टीम के 20 से ज्यादा लोगों को विधानसभा में टिकट दिया।
लेकिन, चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के पास न तो कोई मजबूत चेहरा था। न ही संगठन को संजोने वाला कोई नेता। उसकी वजह से विश्वविद्यालय की राजनीति से विधानसभा की राजनीति करने पहुंचे नेताओं को कोई ढंग का आधार ही नहीं मिल पाया। अब सवाल ये है कि मैं कल्याण-कलराज को याद क्यों कर रहा हूं। भाजपा के मजबूत होने का आधार क्यों ढूंढ़ रहा हूं।
दरअसल हम जैसे लोग जो, उत्तर प्रदेश को मायावती के सत्ता में आने के बाद सुधरता हुआ देख रहे थे। आनदंसेन यादव जैसे प्रकरणों के बाद हम जैसे लोगों को लग रहा है कि प्रदेश में मुलायम, मायावती के अलावा तीसरा कोई ध्रुव न होने से ये नेता निरंकुश हो गए हैं। और, इस बात से तो शायद ही किसी को संदेह होगा कि कल्याण सिंह से इमानदार मुख्यमंत्री शायद ही कोई हो। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते अपराधी और भ्रष्टाचारियों की तो प्रदेश में सिर उठाने की हिम्मत नहीं ही पड़ती।
मुलायम के रास्ते पर जाती मायावती
उत्तर प्रदेश के लोगों को ये भरोसा हो गया था कि मायावती ही वो नेता हैं जो, प्रदेश से मुलायम सिंह यादव और उनके गंडों का आतंकराज खत्म कर सकती हैं। मायावती ने भी दहाड़-दहाड़कर ये जताया कि वही अकेली नेता हैं जो, सपा के राज में खत्म हो गए कानून के राज को फिर से वापस ला सकती हैं। लेकिन, 6 महीने बीतते-बीतते ही माया की सत्ता का असली रंग दिखना शुरू हो गया है।
उत्तर प्रदेश के एक मंत्री आनंदसेन यादव के ऊपर आरोप है कि उन्होंने फैजाबाद में विधि स्नातक की छात्रा शशि के साथ अनैतिक संबंध कायम किए (अब तो मैं भ्रम में पड़ गया हूं कि ये अब अनैतिक रहा भी है क्या) फिर एक दिन अचानक शशि गायब हो गई। अंदेशा है कि उसकी हत्या कर दी गई। पुलिस शशि की लाश अब तक नहीं खोज पाई है।
जब मीडिया में बहुत हल्ला होने लगा तो, आनंदसेन को मायावती ने इस्तीफा देने के लिए कह दिया। एक दिन बाद मंत्री आनंदसेन ने इस्तीफा तो दे दिया। लेकिन, आश्चर्य है कि अब तक मंत्री आनंदसेन यादव के खिलाफ कोई जांच ही नहीं शुरू हुई है। जबकि, अब तक मिले सुबूतों से साफ है कि गायब होने से पहले शशि सुल्तानपुर में मंत्री आनंदसेन के साथ देखी गई थी। लेकिन, पुलिस सिर्फ शशि की लाश खोजने में लगी है। हां, आनंदसेन के ड्राइवर से जरूर पूछताछ चल रही है।
अब सवाल ये है कि अगर आनंदसेन को सरकार दोषी नहीं मानती तो, उनसे इस्तीफा लेने की क्या जरूरत थी। और, अगर इस्तीफे का आधार आरोपी होना है तो, फिर एफआईआर में आनंदसेन का नाम क्यों नहीं है। शशि के पिता योगेंद्र कुमार साफ-साफ कह रहे हैं कि उनकी बेटी की हत्या आनंदसेन यादव ने करवाई है। टीवी पर रोते हुए योगेंद्र कुमार के बगल में हमेशा मायावती के आदर्श डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की बड़ी तस्वीर दिखती है। योगेंद्र कुमार रोते हुए बार-बार कह रहे हैं कि वो बरसों से बहुजन समाज पार्टी की झंडा उठा रहे हैं लेकिन, उसी पार्टी की सरकार में उनकी बेटी की इज्जत गई, अब जान भी जाती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश में सारे समीकरणों को तोड़कर जनता ने मायावती को भय, भ्रष्टाचार और आतंक के खिलाफ पूर्ण बहुमत दिया। मायावती को सत्ता मिली तो, माया ने कहा – मायाराज में मलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंक-जंगलराज पूरी तरह से खत्म होगा। महीने भर में ही मुलायम के गुंडे अंदर हो गए। कानून का राज दिखने लगा। और, अब उत्तर प्रदेश में सिर्फ मायावती के लोगों को भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज चल रहा है। मुलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज खत्म हो गया। मैडम मायावती ने अपना चुनावी वादा पूरा कर दिया।
कुल मिलाकर मायावती, मुलायम के ही रास्ते पर जाती दिख रही हैं। इलाहाबाद में इफको फैक्ट्री में वसूली के लिए गए गुंडों में बसपा के एक स्थानीय नेता का भाई भी शामिल था। ऐसा हाल लगभग राज्य के हर जिले में दिख रहा है। यानी उत्तर प्रदेश के लोगों के दिन बहुरने में अभी जाने कितना वक्त लगेगा।
उत्तर प्रदेश के एक मंत्री आनंदसेन यादव के ऊपर आरोप है कि उन्होंने फैजाबाद में विधि स्नातक की छात्रा शशि के साथ अनैतिक संबंध कायम किए (अब तो मैं भ्रम में पड़ गया हूं कि ये अब अनैतिक रहा भी है क्या) फिर एक दिन अचानक शशि गायब हो गई। अंदेशा है कि उसकी हत्या कर दी गई। पुलिस शशि की लाश अब तक नहीं खोज पाई है।
जब मीडिया में बहुत हल्ला होने लगा तो, आनंदसेन को मायावती ने इस्तीफा देने के लिए कह दिया। एक दिन बाद मंत्री आनंदसेन ने इस्तीफा तो दे दिया। लेकिन, आश्चर्य है कि अब तक मंत्री आनंदसेन यादव के खिलाफ कोई जांच ही नहीं शुरू हुई है। जबकि, अब तक मिले सुबूतों से साफ है कि गायब होने से पहले शशि सुल्तानपुर में मंत्री आनंदसेन के साथ देखी गई थी। लेकिन, पुलिस सिर्फ शशि की लाश खोजने में लगी है। हां, आनंदसेन के ड्राइवर से जरूर पूछताछ चल रही है।
अब सवाल ये है कि अगर आनंदसेन को सरकार दोषी नहीं मानती तो, उनसे इस्तीफा लेने की क्या जरूरत थी। और, अगर इस्तीफे का आधार आरोपी होना है तो, फिर एफआईआर में आनंदसेन का नाम क्यों नहीं है। शशि के पिता योगेंद्र कुमार साफ-साफ कह रहे हैं कि उनकी बेटी की हत्या आनंदसेन यादव ने करवाई है। टीवी पर रोते हुए योगेंद्र कुमार के बगल में हमेशा मायावती के आदर्श डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की बड़ी तस्वीर दिखती है। योगेंद्र कुमार रोते हुए बार-बार कह रहे हैं कि वो बरसों से बहुजन समाज पार्टी की झंडा उठा रहे हैं लेकिन, उसी पार्टी की सरकार में उनकी बेटी की इज्जत गई, अब जान भी जाती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश में सारे समीकरणों को तोड़कर जनता ने मायावती को भय, भ्रष्टाचार और आतंक के खिलाफ पूर्ण बहुमत दिया। मायावती को सत्ता मिली तो, माया ने कहा – मायाराज में मलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंक-जंगलराज पूरी तरह से खत्म होगा। महीने भर में ही मुलायम के गुंडे अंदर हो गए। कानून का राज दिखने लगा। और, अब उत्तर प्रदेश में सिर्फ मायावती के लोगों को भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज चल रहा है। मुलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज खत्म हो गया। मैडम मायावती ने अपना चुनावी वादा पूरा कर दिया।
कुल मिलाकर मायावती, मुलायम के ही रास्ते पर जाती दिख रही हैं। इलाहाबाद में इफको फैक्ट्री में वसूली के लिए गए गुंडों में बसपा के एक स्थानीय नेता का भाई भी शामिल था। ऐसा हाल लगभग राज्य के हर जिले में दिख रहा है। यानी उत्तर प्रदेश के लोगों के दिन बहुरने में अभी जाने कितना वक्त लगेगा।
Tuesday, November 6, 2007
‘मुलायम’ ‘राहुल’ पर ‘माया’ सख्त
राहुल गांधी के आगे भले ही देश के कई राज्यों के मुख्यमंत्री सिर नवाए खड़े रहते हों लेकिन, राहुल अपने संसदीय क्षेत्र एक सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। वो, भी एक ऐसा इंजीनियर जिसके खिलाफ खराब तरीके से काम करने के ढेर सारे आरोप हैं। लेकिन, इस सबके बावजूद राहुल गांधी की सिफारिश कूड़े में पड़ी है। और, सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर बाबूराम राहुल के चुनाव क्षेत्र में मूंछे ऐंठकर मजे से काम कर रहा है।
दरअसल राहुल गांधी अमेठी से सांसद तो हैं ही। सुल्तानपुर की डिस्ट्रिक्ट विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग कमेटी के चेयरमैन भी हैं। जल निगम के सुपिरंटेंडिंग इंजीनियर (अधीक्षण अभियंता) के खिलाफ गलत तरीके से काम कराने की शिकायत के बाद राहुल गांधी ने बाबूराम को सस्पेंड करने की सिफारिश कर दी। सुल्तानपुर के जिलाधिकारी ने राहुल की सिफारिश को आगे बढ़ाते हुए बाबूराम के सस्पेंशन की फाइल उत्तर प्रदेश शहरी विकास विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पास भेजी। लेकिन, 27 जुलाई को भेजी गई इस सिफारिश पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
आमतौर पर ये कम ही होता है कि डिस्ट्रिक्ट विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग कमेटी की सिफारिशें न मानी जाएं। इसमें सभी पार्टियों के सांसद-विधायक शामिल होते हैं। लेकिन, इस मामले में शायद मायाराज के अधिकारियों को ये लगता है कि राज्य के किसी अधिकारी को कांग्रेस के किसी सांसद की सिफारिश पर हटाना राजनीतिक तौर पर नुकसान का फैसला हो सकता है। वो, भी जब राहुल गांधी जैसा सांसद हो तो, स्वाभाविक है, इसका राजनीतिक फायदा-नुकसान तो होगा ही।
ये बहुत छोटा सा मामला है। लेकिन, इस एक मामले से समझा जा सकता है कि दिल्ली में मायावती भले ही सोनिया से मुस्कुराते हुए मिलें। और, अपनी जरूरतों के लिहाज से समझौते करें। लेकिन, उत्तर प्रदेश की सत्ता की एक छटांक भी किसी कांग्रेसी के हिस्से वो नहीं जाने देंगी। साथ ही इससे एक बात और साफ है कि मायाराज का भ्रष्टाचार दूसरे तरीके से चालू आहे। बाबूराम के खिलाफ शिकायत है कि उन्होंने कई हैंडपंप की बोरिंग के बाद बिना हैंडपंप लगे ही पूरा पैसा रिलीज कर दिया। और, बिना पंप के 6 महीने से बोरिंग हुई पड़ी है।
ऐसे सरकारी हैंडपंप ज्यादातर उन्ही जगहों पर लगते हैं जहां, आर्थिक तौर पर कमजोर लोग रहते हैं। यानी जिनके पास अपना हैंडपंप लगवाने के पैसे नहीं हैं। इसमें से ज्यादातर लोग वो, हैं जो, मायावती का नीला झंडा उठाए लखनऊ में सरकारी पैसे से हुई रैली में मायावती को सुनने भी गए होंगे। अब जब मायावती अपने वोटबैंक की भी सुध नहीं ले रही हैं तो, फिर औरों की क्या बिसात है। और, राहुल के कद के आदमी की जब एक साधारण से भ्रष्ट अधीक्षण अभियंता पर नहीं चल रही है तो, आम आदमी के लिए तो, फरियाद के रास्ते भी बंद हो जाते हैं।
दरअसल राहुल गांधी अमेठी से सांसद तो हैं ही। सुल्तानपुर की डिस्ट्रिक्ट विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग कमेटी के चेयरमैन भी हैं। जल निगम के सुपिरंटेंडिंग इंजीनियर (अधीक्षण अभियंता) के खिलाफ गलत तरीके से काम कराने की शिकायत के बाद राहुल गांधी ने बाबूराम को सस्पेंड करने की सिफारिश कर दी। सुल्तानपुर के जिलाधिकारी ने राहुल की सिफारिश को आगे बढ़ाते हुए बाबूराम के सस्पेंशन की फाइल उत्तर प्रदेश शहरी विकास विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पास भेजी। लेकिन, 27 जुलाई को भेजी गई इस सिफारिश पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
आमतौर पर ये कम ही होता है कि डिस्ट्रिक्ट विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग कमेटी की सिफारिशें न मानी जाएं। इसमें सभी पार्टियों के सांसद-विधायक शामिल होते हैं। लेकिन, इस मामले में शायद मायाराज के अधिकारियों को ये लगता है कि राज्य के किसी अधिकारी को कांग्रेस के किसी सांसद की सिफारिश पर हटाना राजनीतिक तौर पर नुकसान का फैसला हो सकता है। वो, भी जब राहुल गांधी जैसा सांसद हो तो, स्वाभाविक है, इसका राजनीतिक फायदा-नुकसान तो होगा ही।
ये बहुत छोटा सा मामला है। लेकिन, इस एक मामले से समझा जा सकता है कि दिल्ली में मायावती भले ही सोनिया से मुस्कुराते हुए मिलें। और, अपनी जरूरतों के लिहाज से समझौते करें। लेकिन, उत्तर प्रदेश की सत्ता की एक छटांक भी किसी कांग्रेसी के हिस्से वो नहीं जाने देंगी। साथ ही इससे एक बात और साफ है कि मायाराज का भ्रष्टाचार दूसरे तरीके से चालू आहे। बाबूराम के खिलाफ शिकायत है कि उन्होंने कई हैंडपंप की बोरिंग के बाद बिना हैंडपंप लगे ही पूरा पैसा रिलीज कर दिया। और, बिना पंप के 6 महीने से बोरिंग हुई पड़ी है।
ऐसे सरकारी हैंडपंप ज्यादातर उन्ही जगहों पर लगते हैं जहां, आर्थिक तौर पर कमजोर लोग रहते हैं। यानी जिनके पास अपना हैंडपंप लगवाने के पैसे नहीं हैं। इसमें से ज्यादातर लोग वो, हैं जो, मायावती का नीला झंडा उठाए लखनऊ में सरकारी पैसे से हुई रैली में मायावती को सुनने भी गए होंगे। अब जब मायावती अपने वोटबैंक की भी सुध नहीं ले रही हैं तो, फिर औरों की क्या बिसात है। और, राहुल के कद के आदमी की जब एक साधारण से भ्रष्ट अधीक्षण अभियंता पर नहीं चल रही है तो, आम आदमी के लिए तो, फरियाद के रास्ते भी बंद हो जाते हैं।
Saturday, November 3, 2007
भ्रष्टाचार, अपराध से बरबाद हुआ राज्य उत्तर प्रदेश
Thursday, October 11, 2007
किसी राज्य में भ्रष्टाचार और अपराध की जड़ें मजबूत होने से किस तरह का नुकसान होता है, इसका उत्तर प्रदेश से बेहतर उदाहरण शायद ही कोई और राज्य है। वैसे तो, उत्तर प्रदेश पिछले दो दशकों से किसी मामले में शायद ही तरक्की कर पाया हो लेकिन, पिछले पांच सालों में रही-सही कसर भी पूरी हो गई। अपराध-भ्रष्टाचार इस राज्य में इस तरह से सिस्टम का अंग बन गए कि सरकार और अपराधियों में अंतर कर पाना मुश्किल हो गया। और, इसका सीधा असर पड़ा राज्य के विकास पर। उत्तर प्रदेश ऐसा पिछड़ गया है कि रफ्तार पकड़ने में जाने कितने साल लगेंगे।
देश की 16 प्रतिशत आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश अपराध के मामले अव्वल है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, देश के 24 प्रतिशत हिंसक अपराध उत्तर प्रदेश के ही हिस्से में आ रहा है। ऐसे में प्रति व्यक्ति के आधार पर देखें तो, ज्यादा बदनाम राज्य बिहार भी इससे पीछे छूट चुका है। इस सबका असर ये है कि जब 1990 के बाद देश में तरक्की की रफ्तार सबसे तेजी है, जब ये कहा जा रहा है कि पैसा बरस रहा है कोई भी बटोर ले, उत्तर प्रदेश में व्यापार करना ज्यादातर मामलों में घाटे का सौदा साबित हो रहा है। देश जब आठ प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से तरक्की कर रहा है तो, उत्तर प्रदेश सिर्फ 5 प्रतिशत की ही रफ्तार मुश्किल से पकड़ पा रहा है।
CII यानी कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री के एक आंकड़े के मुताबिक, 2004 में देश में जब घरेलू खपत प्रति व्यक्ति 18.912 रुपए थ तो, उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति घरेलू खपत करीब आधी यानी सिर्फ 9,900 रुपए थी। साफ है इंडस्ट्री तो बरबाद हुई ही लोगों की जेब में भी पैसा नहीं है। इसकी वजह भी साफ है उत्तर प्रदेश में 2005 में हिंसक अपराध 38 प्रतिशत बढ़ गए। व्यापार करने के लिए सरकारी तंत्र के साथ ही माफियाओं-बदमाशों से भी “नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट” लेना पड़ता है। बौद्धिक-धार्मिक नगरी इलाहाबाद में ही सिर्फ 2005 में 100 से ज्यादा हत्याएं दर्ज की गई हैं जबकि 60 अपहरण के मामले पता चले।
ऐसे माहौल में कोई और व्यापार चले न चले। लोगों को सुरक्षा देने का धंधा खूब चल रहा है। सिर्फ एक एजेंसी उत्तर प्रदेश पूर्व सैनिक कल्याण निगम के 12,000 सिक्योरिटी गार्ड लोगों की निजी सुरक्षा में लगे हैं। जबकि, इस एजेंसी के पास 1999 में सिर्फ 250 सिक्योरिटी गार्ड थे। ये हाल तब है जब उत्तर प्रदेश में ज्यादातर इलाकों में निजी असलहे रखना फैशन स्टेटमेंट माना जाता है।
इस राज्य में इंडस्ट्री कैसे आगे बढ़ सकती है। इसका बड़ा उदाहरण सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि इस राज्य में 2 राज्य राजमार्गों की हालत 20 साल पहले जैसी ही बुरी बनी हुई है। मुझे याद है कि एक बार मैं उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस से इलाहाबाद से गोरखपुर गया था। इस सफर के बाद मुझे अंदाजा लग गया कि जौनपुर में रहने वाले मेरे दोस्त अपने घर जाने से पहले ये क्यों कहते थे कि कॉम्बीफ्लाम (दर्द दूर करने की दवा) ले लिया है ना।
इलाहाबाद से जौनपुर का रास्ता करीब साल भर से तो, चौड़ा होने के लिए खुदा हुआ है। ऐसा ही हाल है इलाहाबाद से सुल्तानपुर को जोड़ने वाले रास्ते में प्रतापगढ़ से सुल्तानपुर का। समझ में नहीं आता कि ये रास्ते क्या किसी नेता की विधानसभा-लोकसभा में नहीं आते। आखिर इन्हीं रास्तों से तो नेताजी-अधिकारी लोगों को भी तो आना जाना पड़ता है।
मायावती ने राज्य की सत्ता संभालते ही राज्य को भ्रष्टाचार मुक्त, अपराध मुक्त करने का भरोसा दिलाया था। लेकिन, तीन महीने में तो कुछ तस्वीर बदलती नहीं दिखी है। अब उम्मीद यही कर सकते हैं कि अपनी सत्ता बचाए रखने और लोकसभा चुनावों में सीट बढ़ाने के लिए विधानसभा चुनाव के समय किए गए वादे मायावती पूरा करेंगी।
किसी राज्य में भ्रष्टाचार और अपराध की जड़ें मजबूत होने से किस तरह का नुकसान होता है, इसका उत्तर प्रदेश से बेहतर उदाहरण शायद ही कोई और राज्य है। वैसे तो, उत्तर प्रदेश पिछले दो दशकों से किसी मामले में शायद ही तरक्की कर पाया हो लेकिन, पिछले पांच सालों में रही-सही कसर भी पूरी हो गई। अपराध-भ्रष्टाचार इस राज्य में इस तरह से सिस्टम का अंग बन गए कि सरकार और अपराधियों में अंतर कर पाना मुश्किल हो गया। और, इसका सीधा असर पड़ा राज्य के विकास पर। उत्तर प्रदेश ऐसा पिछड़ गया है कि रफ्तार पकड़ने में जाने कितने साल लगेंगे।
देश की 16 प्रतिशत आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश अपराध के मामले अव्वल है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, देश के 24 प्रतिशत हिंसक अपराध उत्तर प्रदेश के ही हिस्से में आ रहा है। ऐसे में प्रति व्यक्ति के आधार पर देखें तो, ज्यादा बदनाम राज्य बिहार भी इससे पीछे छूट चुका है। इस सबका असर ये है कि जब 1990 के बाद देश में तरक्की की रफ्तार सबसे तेजी है, जब ये कहा जा रहा है कि पैसा बरस रहा है कोई भी बटोर ले, उत्तर प्रदेश में व्यापार करना ज्यादातर मामलों में घाटे का सौदा साबित हो रहा है। देश जब आठ प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से तरक्की कर रहा है तो, उत्तर प्रदेश सिर्फ 5 प्रतिशत की ही रफ्तार मुश्किल से पकड़ पा रहा है।
CII यानी कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री के एक आंकड़े के मुताबिक, 2004 में देश में जब घरेलू खपत प्रति व्यक्ति 18.912 रुपए थ तो, उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति घरेलू खपत करीब आधी यानी सिर्फ 9,900 रुपए थी। साफ है इंडस्ट्री तो बरबाद हुई ही लोगों की जेब में भी पैसा नहीं है। इसकी वजह भी साफ है उत्तर प्रदेश में 2005 में हिंसक अपराध 38 प्रतिशत बढ़ गए। व्यापार करने के लिए सरकारी तंत्र के साथ ही माफियाओं-बदमाशों से भी “नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट” लेना पड़ता है। बौद्धिक-धार्मिक नगरी इलाहाबाद में ही सिर्फ 2005 में 100 से ज्यादा हत्याएं दर्ज की गई हैं जबकि 60 अपहरण के मामले पता चले।
ऐसे माहौल में कोई और व्यापार चले न चले। लोगों को सुरक्षा देने का धंधा खूब चल रहा है। सिर्फ एक एजेंसी उत्तर प्रदेश पूर्व सैनिक कल्याण निगम के 12,000 सिक्योरिटी गार्ड लोगों की निजी सुरक्षा में लगे हैं। जबकि, इस एजेंसी के पास 1999 में सिर्फ 250 सिक्योरिटी गार्ड थे। ये हाल तब है जब उत्तर प्रदेश में ज्यादातर इलाकों में निजी असलहे रखना फैशन स्टेटमेंट माना जाता है।
इस राज्य में इंडस्ट्री कैसे आगे बढ़ सकती है। इसका बड़ा उदाहरण सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि इस राज्य में 2 राज्य राजमार्गों की हालत 20 साल पहले जैसी ही बुरी बनी हुई है। मुझे याद है कि एक बार मैं उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस से इलाहाबाद से गोरखपुर गया था। इस सफर के बाद मुझे अंदाजा लग गया कि जौनपुर में रहने वाले मेरे दोस्त अपने घर जाने से पहले ये क्यों कहते थे कि कॉम्बीफ्लाम (दर्द दूर करने की दवा) ले लिया है ना।
इलाहाबाद से जौनपुर का रास्ता करीब साल भर से तो, चौड़ा होने के लिए खुदा हुआ है। ऐसा ही हाल है इलाहाबाद से सुल्तानपुर को जोड़ने वाले रास्ते में प्रतापगढ़ से सुल्तानपुर का। समझ में नहीं आता कि ये रास्ते क्या किसी नेता की विधानसभा-लोकसभा में नहीं आते। आखिर इन्हीं रास्तों से तो नेताजी-अधिकारी लोगों को भी तो आना जाना पड़ता है।
मायावती ने राज्य की सत्ता संभालते ही राज्य को भ्रष्टाचार मुक्त, अपराध मुक्त करने का भरोसा दिलाया था। लेकिन, तीन महीने में तो कुछ तस्वीर बदलती नहीं दिखी है। अब उम्मीद यही कर सकते हैं कि अपनी सत्ता बचाए रखने और लोकसभा चुनावों में सीट बढ़ाने के लिए विधानसभा चुनाव के समय किए गए वादे मायावती पूरा करेंगी।
बेशर्मी की हदें टूट गईं मुलायम राज में
Sunday, September 30, 2007
उत्तर प्रदेश में जिस्म बेचकर सिपाही की नौकरी मिली। ये सब उस समय हुआ जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। पुलिस भर्ती घोटाले की जांच में अब तक का ये सबसे चौंकाने वाला और शर्मनाक तथ्य सामने आया है। मामले के जांच अधिकारी शैलजाकांत मिश्रा पत्रकारों को ये बात बताते हुए खुद शर्म महसूस कर रहे थे। उन्होंने बताया कि जांच के दौरान सिपाही की भर्ती में शामिल हुई कई लड़कियों ने उनसे बताया कि उन्हें सिपाही बनाने के एवज में बिस्तर गर्म करने को कहा गया। जब ऐसा चल रहा हो तो, जाहिर है जिसने भी मना किया वो, सिपाही की सूची से बाहर हो गया।
उत्तर प्रदेश में गलत तरीके से नौकरी पाने वाले 18,000 सिपाहियों की भर्ती अब तक मायावती रद्द कर चुकी हैं। पहले 6504 सिपाहियों की भर्ती रद्द हुई, अब 7,400। 25 IPS अफसर भी निलंबित किए जा चुके हैं। बड़े पुलिस अधिकारियों की भी गर्दन जब मायावती ने नापनी शुरू की तो, मुलायम इसे अपने ऊपर राजनीतिक हमला बता रहे थे। वैसे मुलायम अभी भी बेशर्मी के साथ कह रहे हैं कि सब कुछ राजनीतिक साजिश है। वो, मायावती को चेतावनी भी दे रहे हैं कि मायावती की भी सरकार जाएगी। अच्छा है मुलायम बार-बार मायावती को ये चेतावनी दे रहे हैं। इससे कम से कम मायावती के राज में तो ऐसा नंगा नाच नहीं होगा। जिससे अगली सरकार मायावती की खाल उधेड़ने की कोशिश करे।
खैर, बात मुलायम राज में हुई गंदगी की चल रही थी। सिपाही भर्ती घोटाले की जांच कर रहे शैलजाकांत ने बताया है कि इसमें पुलिस के बड़े अफसरों के अलावा एक बड़े नेता का नाम भी सामने आया है। अभी वो इसे बताने को तैयार नहीं हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश को जानने वाले ज्यादातर लोग उन नेताजी का नाम जानते ही होंगे। वैसे किसी नेता के शामिल हुए बिना कोई भी पुलिस अधिकारी अपने स्तर पर इतना बड़ा घोटाला कर सकता है, ये तो संभव ही नहीं था। नेता भी कोई ऐसा ही होगा जो, सत्ता के दरबार में सबसे ज्यादा हनक रखता हो।
लखनऊ में इन्हीं नेताजी के घर पर तय हुआ कि किस-किस को सिपाही की वर्दी देनी है। एक निजी एजेंसी के हाथ में रिजल्ट बनाने का जिम्मा था। हद ये हुई कि किसी अधिकारी के बिना हस्ताक्षर के ही सूची जारी की गई। वैसे जारी करने से पहले मुलायम राज में सत्ता के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे नेताजी ने कई बार सूची में फेरबदल कराया। वैसे जिस तरह से मुलायम के राज में जनता त्रस्त थी। उससे तो, यही लगता है कि ये ट्रेलर भर है। फिल्म अभी बाकी है। यानी उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने के छलावे के पीछे के कई कुकर्म सामने आने बाकी हैं।
उत्तर प्रदेश में जिस्म बेचकर सिपाही की नौकरी मिली। ये सब उस समय हुआ जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। पुलिस भर्ती घोटाले की जांच में अब तक का ये सबसे चौंकाने वाला और शर्मनाक तथ्य सामने आया है। मामले के जांच अधिकारी शैलजाकांत मिश्रा पत्रकारों को ये बात बताते हुए खुद शर्म महसूस कर रहे थे। उन्होंने बताया कि जांच के दौरान सिपाही की भर्ती में शामिल हुई कई लड़कियों ने उनसे बताया कि उन्हें सिपाही बनाने के एवज में बिस्तर गर्म करने को कहा गया। जब ऐसा चल रहा हो तो, जाहिर है जिसने भी मना किया वो, सिपाही की सूची से बाहर हो गया।
उत्तर प्रदेश में गलत तरीके से नौकरी पाने वाले 18,000 सिपाहियों की भर्ती अब तक मायावती रद्द कर चुकी हैं। पहले 6504 सिपाहियों की भर्ती रद्द हुई, अब 7,400। 25 IPS अफसर भी निलंबित किए जा चुके हैं। बड़े पुलिस अधिकारियों की भी गर्दन जब मायावती ने नापनी शुरू की तो, मुलायम इसे अपने ऊपर राजनीतिक हमला बता रहे थे। वैसे मुलायम अभी भी बेशर्मी के साथ कह रहे हैं कि सब कुछ राजनीतिक साजिश है। वो, मायावती को चेतावनी भी दे रहे हैं कि मायावती की भी सरकार जाएगी। अच्छा है मुलायम बार-बार मायावती को ये चेतावनी दे रहे हैं। इससे कम से कम मायावती के राज में तो ऐसा नंगा नाच नहीं होगा। जिससे अगली सरकार मायावती की खाल उधेड़ने की कोशिश करे।
खैर, बात मुलायम राज में हुई गंदगी की चल रही थी। सिपाही भर्ती घोटाले की जांच कर रहे शैलजाकांत ने बताया है कि इसमें पुलिस के बड़े अफसरों के अलावा एक बड़े नेता का नाम भी सामने आया है। अभी वो इसे बताने को तैयार नहीं हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश को जानने वाले ज्यादातर लोग उन नेताजी का नाम जानते ही होंगे। वैसे किसी नेता के शामिल हुए बिना कोई भी पुलिस अधिकारी अपने स्तर पर इतना बड़ा घोटाला कर सकता है, ये तो संभव ही नहीं था। नेता भी कोई ऐसा ही होगा जो, सत्ता के दरबार में सबसे ज्यादा हनक रखता हो।
लखनऊ में इन्हीं नेताजी के घर पर तय हुआ कि किस-किस को सिपाही की वर्दी देनी है। एक निजी एजेंसी के हाथ में रिजल्ट बनाने का जिम्मा था। हद ये हुई कि किसी अधिकारी के बिना हस्ताक्षर के ही सूची जारी की गई। वैसे जारी करने से पहले मुलायम राज में सत्ता के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे नेताजी ने कई बार सूची में फेरबदल कराया। वैसे जिस तरह से मुलायम के राज में जनता त्रस्त थी। उससे तो, यही लगता है कि ये ट्रेलर भर है। फिल्म अभी बाकी है। यानी उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने के छलावे के पीछे के कई कुकर्म सामने आने बाकी हैं।
उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित
Wednesday, July 25, 2007
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार से 80 हजार करोड़ रुपए मांग रही हैं। वो भी अखबारों में विज्ञापन देकर। शायद ये पहली बार हो रहा है कि कोई मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से राज्य के विकास के लिए विज्ञापन के जरिए पैसे मांग रहा है। इस बार सरकार संभालने के साथ ही मायावती ने इस बात की कोशिश शुरू कर दी थी कि राज्य का विकास कैसे किया जाए (कम से कम बोलकर)। जब मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं, तभी से लोग इस बात का अंदाजा लगाने लगे थे कि आखिर मायावती केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को समर्थन देकर क्या हासिल करना चाहती हैं। लोगों को लग यही रहा था कि केंद्र सरकार को मायावती का ये समर्थन कहीं सिर्फ राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ तक ही न सीमित रह जाए। लेकिन, इस बार मायावती साफ संदेश दे रही हैं कि वो लंबी पारी खेलने के मूड में है। और, वो उत्तर प्रदेश के जरिए पूरे देश में ये संदेश दे रही हैं कि उन्हें इस बात अच्छी तरह अहसास है कि जिस सर्वजन के फॉर्मूले पर चुनाव जीतकर वो यूपी में सत्ता में आई हैं, आगे के पांच साल का शासन सिर्फ उसी के बूते नहीं हो सकता।
मायावती के हाथ में एक ऐसे राज्य की बागडोर है जो, मानव संसाधन से तो, पूरी तरह संपन्न है। राज्य की आबादी 18 करोड़ हो चुकी है। लेकिन, इसके अलावा राज्य के पास ऐसा कुछ खास नहीं है जिससे वो विकास के मामले में दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के आसपास भी खड़ा हो सके। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां एग्री बेस्ड इंडस्ट्री ही अच्छे से चल सकती है। खेती पर आधारित उद्योग इसलिए भी सफल हो सकते हैं क्योंकि, उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से है जो, जल संपदा के मामले में संपन्न हैं। देश की 9 प्रतिशत जमीन उत्तर प्रदेश के पास ही है। इसीलिए खेती पर आधारित चीनी उद्योग के मामले में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। फल-सब्जियां उगाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश आगे है। लेकिन, चीनी को लेकर सरकारों की गलत नीतियों के चलते सभी चीनी घाटा उठा रही हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मायावती ने नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर समझ लिया कि इन्हें चलाना अब सरकार के लिए किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं है। इसलिए मायावती ने चीनी मिलों को उद्योगपतियों को बेचने का फैसला किया है। औद्योगिक सुधार की मायावती सरकार की नीति का ये पहला प्रभावी कदम है।
राज्य के विकास के लिए केंद्र से मांगे गए 80 हजार करोड़ रुपए में 22 हजार करोड़ रुपए मायावती ने बेहतर खेती की सुविधाओं पर खर्च करने के लिए ही मांगे हैं। राज्य की बड़ी आबादी अभी भी गांवों में रहती है इसलिए गांवों तक सभी सभी विकास योजनाएं समय से पहुंचे ये, राज्य के तेज विकास के लिए बहुत जरूरी है। गांव में पंचायती राज लागू करने और सुविधाएं बेहतर करने के लिए मायावती ने 6 हजार 5 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। खेती की सुविधा और गांव-पंचायती राज पर अगर 28 हजार 5 सौ करोड़ रुपए की ये रकम सलीके से खर्च हो पाई तो, शायद विकास की गाड़ी दौड़नी तो, शुरू हो ही जाएगी।
वैसे मुलायम सिंह यादव के राज में भी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास निगम बना था। और, अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी के प्रभाव में देश के कई बड़े औद्योगिक घराने इसमें शामिल भी हो गए थे। लेकिन, अनिल अंबानी के दादरी प्रोजेक्ट को छोड़कर एक भी ऐसा प्रोजेक्ट सुनाई नहीं दिया जिससे राज्य की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती। मुलायम सत्ता का सुख भोगकर सत्ता से बाहर भी हो गए लेकिन, राज्य का भला नहीं हो सका। राज्य की खराब कानून व्यवस्था की हालत की वजह से किसी भी उद्योगपति की राज्य में उद्योग लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। कानपुर, भदोही, बनारस, मुरादाबाद जैसे पुराने औद्योगिक नगर भी सिर्फ सरकारी वसूली का केंद्र बनकर रह गए। बची-खुची कसर पूरी कर दी केंद्र सरकार से खराब रिश्तों ने। जिससे केंद्र से आने वाली विकास की धारा भी रुक गई।
अब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। सामाजिक समीकरण भी ऐसे बन गए हैं कि कहीं से भी मायावती के खिलाफत के स्वर अभी सुनाई नहीं दे रहे हैं। केंद्र सरकार से मायावती के रिश्ते राष्ट्रपति चुनाव के बाद और भी बेहतर हो गए हैं। लेफ्ट पार्टियों को संतुलित रखने के लिए मायावती सोनिया के लिए बेहतर साबित हो सकती हैं, इसलिए आगे भी मायावती और सोनिया मैडम के रिश्ते बेहतर होते ही दिख रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, मायावती के सत्ता में आते ही दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच बसों का विवाद सुलझ गया। ये सांकेतिक ही था लेकिन, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा जिस तरह से सटी हुई है, उसमें दिल्ली से अच्छे संबंध राज्य के विकास की गाड़ी दौड़ाने में मददगार हो सकते हैं।
मायावती के केंद्र से अच्छे रिश्तों की वजह से ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश में विकास की संभावनाएं खोजने के लिए एक कमेटी भी बना दी है। इस कमेटी की रिपोर्ट में जो सबसे जरूरी बात निकलकर आई है कि कानून व्यवस्था की हालत दुरुस्त हुए बिना राज्य में कोई भी पैसे लगाने को तैयार नहीं होगा। और, मायावती ने सत्ता संभालते ही ये दिखा दिया है कि कानून तोड़ने वाले बख्शे नहीं जाएंगे, चाहे वो कोई भी हों। उत्तर भारत के वीरप्पन कहे जाने वाले ददुआ ने पिछले तीस सालों में हर सरकार को ठेंगा दिखाया, वो मारा गया। इलाहाबाद की फूलपुर सीट से लोकसभा सांसद अतीक अहमद को हत्या के मामले में भगोड़ा घोषित कर दिया गया है। माफिया अतीक अहमद का छोटा भाई अशरफ भी बसपा के इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधायक रहे राजू पाल की हत्या के इसी मामले में आरोपी है। वैसे इन मामलों में लोग समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे। लेकिन, मायावती के इस साहस का स्वागत किया जाना चाहिए। वैसे मायावती ने अपनी पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को भी नहीं बख्शा है, जमीन कब्जे की कोशिश में वो जेल भेज दिए गए। कुल मिलाकर मायावती विकास की पहली जरूरी शर्त पूरी कर रही हैं। लेकिन, विकास की सबसे जरूरी शर्त है राज्य में सड़क-पानी-बिजली यानी बुनियादी सुविधाओं का ठीक होना। इन सभी मानकों पर उत्तर प्रदेश देश के दूसरे राज्यों से पीछे जाने की रेस लगाता दिखता है।
केंद्र सरकार की कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो, विकास के मामले में फिर भी बेहतर है लेकिन, बुंदेलखंड और पूर्वांचल का हाल तो, एकदम ही बुरा है। इसीलिए मायावती ने पूर्वांचल के इलाकों में सड़क-बिजली-पानी की सुविधा ठीक करने के लिए 9 हजार 4 सौ करोड़ रुपए और बुंदेलखंड में इस काम के लिए 4 हजार 7 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। लेकिन, इन सबके साथ ही मायावती को एक काम जो, और विकास के लिए तेजी से करना होगा वो, है पहले से चल रही केंद्र की विकास योजनाओं को तेजी से पूरा करना। उत्तर प्रदेश और बिहार वो राज्य हैं जहां एनडीए के शासनकाल में शुरू हुई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का काम सबसे धीमे चल रहा है। दिल्ली से कोलकाता के 8 लेन वाले इस रास्ते में उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा आता है। कानपुर और बनारस जैसे औद्योगिक विकास की संभावनाओं वाले शहर इससे जुड़ रहे हैं।
अपने सर्वजन हिताय के चुनाव जिताऊ फॉर्मूले को ध्यान में रखकर मायावती ने राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले SC/ST/OBC और अल्पसंख्यकों के साथ ऊंची जातियों का जीवन स्तर बेहतर करने के लिए 23 हजार 8 सौ करोड़ रुपए मांगे है। ये अच्छा है कि लोगों की बेहतरी में जाति आड़े नहीं आ रही है। मायावती ने विज्ञापन के जरिए केंद्र सरकार से ये भी अपील की है कि देश में खाली पड़े सभी आरक्षित पदों को भरा जाए। चमत्कार ये है कि मायावती ने उसी विज्ञापन में गरीबी रेखा के नीचे की ऊंची जातियों को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए संविधान में संशोधन की भी मांग की है। कुल मिलाकर मायावती और सोनिया मैडम की राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से जो रिश्ते बन रहे हैं, उसमें ये रकम मायावती को आसानी से मिल जाएगी। क्योंकि, असली परीक्षा तो, यही होगी क्या मायावती उत्तर प्रदेश को BIMARU राज्य की श्रेणी से बाहर ला पाएगीं। उनके पड़ोसी नीतीश कुमार बिहार को इस दाग से बाहर निकालने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं।
वैसे उत्तर प्रदेश का विकास मायावती के साथ केंद्र सरकार की भी मजबूरी है। क्योंकि, देश के सबसे बड़े प्रदेश के पिछड़े रहने पर मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी देश की अर्थव्यवस्था को कैसे भी करके 10 प्रतिशत की विकास की रफ्तार नहीं दे पाएगी। लेकिन, राज्य के विकास की ज्यादा जरूरत मायावती के लिए इसलिए भी है कि पांच साल बाद सिर्फ ब्राह्मण, SC/ST, अल्पसंख्यक के जोड़ से उन्हें फिर सत्ता नहीं मिलने वाली। और, इससे पहले 2009 के लोकसभी चुनाव में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। क्योंकि, गुंडाराज से मुक्त जनता को दो जून की रोटी भी चाहिए। और, अगर उत्तर प्रदेश के निवासियों को घर में ही दो जून की रोटी के साथ अच्छी सड़क, जरूरत का बिजली-पानी और उनके हिस्से की विकास की खुराद मिले तो, फिर भला मुंबई में टैक्सी चलाकर मराठियों की गाली और असम में मजदूरी करके उल्फा की गोली कौन खाना चाहेगा। कुल मिलाकर पिछले ढाई दशक में राजनीति ने उत्तर प्रदेश का बेड़ा गर्क कर दिया। अब शायद समय चक्र घूम चुका है। अब राजनीति की ही मजबूरी से उत्तर प्रदेश देश में अपना खोया स्थान पा सकेगा। लेकिन, इसमें भी अगर राजनीति हावी न हो गई तो......
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार से 80 हजार करोड़ रुपए मांग रही हैं। वो भी अखबारों में विज्ञापन देकर। शायद ये पहली बार हो रहा है कि कोई मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से राज्य के विकास के लिए विज्ञापन के जरिए पैसे मांग रहा है। इस बार सरकार संभालने के साथ ही मायावती ने इस बात की कोशिश शुरू कर दी थी कि राज्य का विकास कैसे किया जाए (कम से कम बोलकर)। जब मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं, तभी से लोग इस बात का अंदाजा लगाने लगे थे कि आखिर मायावती केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को समर्थन देकर क्या हासिल करना चाहती हैं। लोगों को लग यही रहा था कि केंद्र सरकार को मायावती का ये समर्थन कहीं सिर्फ राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ तक ही न सीमित रह जाए। लेकिन, इस बार मायावती साफ संदेश दे रही हैं कि वो लंबी पारी खेलने के मूड में है। और, वो उत्तर प्रदेश के जरिए पूरे देश में ये संदेश दे रही हैं कि उन्हें इस बात अच्छी तरह अहसास है कि जिस सर्वजन के फॉर्मूले पर चुनाव जीतकर वो यूपी में सत्ता में आई हैं, आगे के पांच साल का शासन सिर्फ उसी के बूते नहीं हो सकता।
मायावती के हाथ में एक ऐसे राज्य की बागडोर है जो, मानव संसाधन से तो, पूरी तरह संपन्न है। राज्य की आबादी 18 करोड़ हो चुकी है। लेकिन, इसके अलावा राज्य के पास ऐसा कुछ खास नहीं है जिससे वो विकास के मामले में दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के आसपास भी खड़ा हो सके। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां एग्री बेस्ड इंडस्ट्री ही अच्छे से चल सकती है। खेती पर आधारित उद्योग इसलिए भी सफल हो सकते हैं क्योंकि, उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से है जो, जल संपदा के मामले में संपन्न हैं। देश की 9 प्रतिशत जमीन उत्तर प्रदेश के पास ही है। इसीलिए खेती पर आधारित चीनी उद्योग के मामले में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। फल-सब्जियां उगाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश आगे है। लेकिन, चीनी को लेकर सरकारों की गलत नीतियों के चलते सभी चीनी घाटा उठा रही हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मायावती ने नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर समझ लिया कि इन्हें चलाना अब सरकार के लिए किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं है। इसलिए मायावती ने चीनी मिलों को उद्योगपतियों को बेचने का फैसला किया है। औद्योगिक सुधार की मायावती सरकार की नीति का ये पहला प्रभावी कदम है।
राज्य के विकास के लिए केंद्र से मांगे गए 80 हजार करोड़ रुपए में 22 हजार करोड़ रुपए मायावती ने बेहतर खेती की सुविधाओं पर खर्च करने के लिए ही मांगे हैं। राज्य की बड़ी आबादी अभी भी गांवों में रहती है इसलिए गांवों तक सभी सभी विकास योजनाएं समय से पहुंचे ये, राज्य के तेज विकास के लिए बहुत जरूरी है। गांव में पंचायती राज लागू करने और सुविधाएं बेहतर करने के लिए मायावती ने 6 हजार 5 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। खेती की सुविधा और गांव-पंचायती राज पर अगर 28 हजार 5 सौ करोड़ रुपए की ये रकम सलीके से खर्च हो पाई तो, शायद विकास की गाड़ी दौड़नी तो, शुरू हो ही जाएगी।
वैसे मुलायम सिंह यादव के राज में भी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास निगम बना था। और, अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी के प्रभाव में देश के कई बड़े औद्योगिक घराने इसमें शामिल भी हो गए थे। लेकिन, अनिल अंबानी के दादरी प्रोजेक्ट को छोड़कर एक भी ऐसा प्रोजेक्ट सुनाई नहीं दिया जिससे राज्य की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती। मुलायम सत्ता का सुख भोगकर सत्ता से बाहर भी हो गए लेकिन, राज्य का भला नहीं हो सका। राज्य की खराब कानून व्यवस्था की हालत की वजह से किसी भी उद्योगपति की राज्य में उद्योग लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। कानपुर, भदोही, बनारस, मुरादाबाद जैसे पुराने औद्योगिक नगर भी सिर्फ सरकारी वसूली का केंद्र बनकर रह गए। बची-खुची कसर पूरी कर दी केंद्र सरकार से खराब रिश्तों ने। जिससे केंद्र से आने वाली विकास की धारा भी रुक गई।
अब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। सामाजिक समीकरण भी ऐसे बन गए हैं कि कहीं से भी मायावती के खिलाफत के स्वर अभी सुनाई नहीं दे रहे हैं। केंद्र सरकार से मायावती के रिश्ते राष्ट्रपति चुनाव के बाद और भी बेहतर हो गए हैं। लेफ्ट पार्टियों को संतुलित रखने के लिए मायावती सोनिया के लिए बेहतर साबित हो सकती हैं, इसलिए आगे भी मायावती और सोनिया मैडम के रिश्ते बेहतर होते ही दिख रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, मायावती के सत्ता में आते ही दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच बसों का विवाद सुलझ गया। ये सांकेतिक ही था लेकिन, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा जिस तरह से सटी हुई है, उसमें दिल्ली से अच्छे संबंध राज्य के विकास की गाड़ी दौड़ाने में मददगार हो सकते हैं।
मायावती के केंद्र से अच्छे रिश्तों की वजह से ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश में विकास की संभावनाएं खोजने के लिए एक कमेटी भी बना दी है। इस कमेटी की रिपोर्ट में जो सबसे जरूरी बात निकलकर आई है कि कानून व्यवस्था की हालत दुरुस्त हुए बिना राज्य में कोई भी पैसे लगाने को तैयार नहीं होगा। और, मायावती ने सत्ता संभालते ही ये दिखा दिया है कि कानून तोड़ने वाले बख्शे नहीं जाएंगे, चाहे वो कोई भी हों। उत्तर भारत के वीरप्पन कहे जाने वाले ददुआ ने पिछले तीस सालों में हर सरकार को ठेंगा दिखाया, वो मारा गया। इलाहाबाद की फूलपुर सीट से लोकसभा सांसद अतीक अहमद को हत्या के मामले में भगोड़ा घोषित कर दिया गया है। माफिया अतीक अहमद का छोटा भाई अशरफ भी बसपा के इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधायक रहे राजू पाल की हत्या के इसी मामले में आरोपी है। वैसे इन मामलों में लोग समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे। लेकिन, मायावती के इस साहस का स्वागत किया जाना चाहिए। वैसे मायावती ने अपनी पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को भी नहीं बख्शा है, जमीन कब्जे की कोशिश में वो जेल भेज दिए गए। कुल मिलाकर मायावती विकास की पहली जरूरी शर्त पूरी कर रही हैं। लेकिन, विकास की सबसे जरूरी शर्त है राज्य में सड़क-पानी-बिजली यानी बुनियादी सुविधाओं का ठीक होना। इन सभी मानकों पर उत्तर प्रदेश देश के दूसरे राज्यों से पीछे जाने की रेस लगाता दिखता है।
केंद्र सरकार की कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो, विकास के मामले में फिर भी बेहतर है लेकिन, बुंदेलखंड और पूर्वांचल का हाल तो, एकदम ही बुरा है। इसीलिए मायावती ने पूर्वांचल के इलाकों में सड़क-बिजली-पानी की सुविधा ठीक करने के लिए 9 हजार 4 सौ करोड़ रुपए और बुंदेलखंड में इस काम के लिए 4 हजार 7 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। लेकिन, इन सबके साथ ही मायावती को एक काम जो, और विकास के लिए तेजी से करना होगा वो, है पहले से चल रही केंद्र की विकास योजनाओं को तेजी से पूरा करना। उत्तर प्रदेश और बिहार वो राज्य हैं जहां एनडीए के शासनकाल में शुरू हुई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का काम सबसे धीमे चल रहा है। दिल्ली से कोलकाता के 8 लेन वाले इस रास्ते में उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा आता है। कानपुर और बनारस जैसे औद्योगिक विकास की संभावनाओं वाले शहर इससे जुड़ रहे हैं।
अपने सर्वजन हिताय के चुनाव जिताऊ फॉर्मूले को ध्यान में रखकर मायावती ने राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले SC/ST/OBC और अल्पसंख्यकों के साथ ऊंची जातियों का जीवन स्तर बेहतर करने के लिए 23 हजार 8 सौ करोड़ रुपए मांगे है। ये अच्छा है कि लोगों की बेहतरी में जाति आड़े नहीं आ रही है। मायावती ने विज्ञापन के जरिए केंद्र सरकार से ये भी अपील की है कि देश में खाली पड़े सभी आरक्षित पदों को भरा जाए। चमत्कार ये है कि मायावती ने उसी विज्ञापन में गरीबी रेखा के नीचे की ऊंची जातियों को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए संविधान में संशोधन की भी मांग की है। कुल मिलाकर मायावती और सोनिया मैडम की राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से जो रिश्ते बन रहे हैं, उसमें ये रकम मायावती को आसानी से मिल जाएगी। क्योंकि, असली परीक्षा तो, यही होगी क्या मायावती उत्तर प्रदेश को BIMARU राज्य की श्रेणी से बाहर ला पाएगीं। उनके पड़ोसी नीतीश कुमार बिहार को इस दाग से बाहर निकालने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं।
वैसे उत्तर प्रदेश का विकास मायावती के साथ केंद्र सरकार की भी मजबूरी है। क्योंकि, देश के सबसे बड़े प्रदेश के पिछड़े रहने पर मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी देश की अर्थव्यवस्था को कैसे भी करके 10 प्रतिशत की विकास की रफ्तार नहीं दे पाएगी। लेकिन, राज्य के विकास की ज्यादा जरूरत मायावती के लिए इसलिए भी है कि पांच साल बाद सिर्फ ब्राह्मण, SC/ST, अल्पसंख्यक के जोड़ से उन्हें फिर सत्ता नहीं मिलने वाली। और, इससे पहले 2009 के लोकसभी चुनाव में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। क्योंकि, गुंडाराज से मुक्त जनता को दो जून की रोटी भी चाहिए। और, अगर उत्तर प्रदेश के निवासियों को घर में ही दो जून की रोटी के साथ अच्छी सड़क, जरूरत का बिजली-पानी और उनके हिस्से की विकास की खुराद मिले तो, फिर भला मुंबई में टैक्सी चलाकर मराठियों की गाली और असम में मजदूरी करके उल्फा की गोली कौन खाना चाहेगा। कुल मिलाकर पिछले ढाई दशक में राजनीति ने उत्तर प्रदेश का बेड़ा गर्क कर दिया। अब शायद समय चक्र घूम चुका है। अब राजनीति की ही मजबूरी से उत्तर प्रदेश देश में अपना खोया स्थान पा सकेगा। लेकिन, इसमें भी अगर राजनीति हावी न हो गई तो......
उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक फेल हुए हैं
Sunday, May 20, 2007
यूपी के चुनाव नतीजे बीजेपी की हार नहीं है। ये हार है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की। संघ के विचारों के यूपी के जातियों में बंटे धरातल पर फेल होने की। यूपी के चुनाव को बीजेपी की हार बताना RSS के और कमजोर होने का रास्ता बना रहा है। यूपी चुनाव में मायावती के पूर्ण बहुमत पाने के बाद RSS ने बीजेपी की हार की जो वजह बताई वो ये कि बीजेपी ने आधे मन से हिंदुत्व का रास्ता अपना लिया। और, मायावती ने इंदिरा गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के फॉर्मूले से चुनाव जीत लिया।
दरअसल उत्तर प्रदेश में हुआ ये परिवर्तन सिर्फ बीजेपी की हार जितना सीधा सा नहीं है। ये कुछ वैसा ही परिवर्तन है जैसा यूपी में कांग्रेस के खिलाफ 1984 के बाद हुआ था। 1984 में भी इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति की लहर न आई होती तो, शायद कांग्रेस को चेतने का समय मिल जाता। लेकिन, 1984 में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो, गदगद कांग्रेसी टिनोपाल लगा कुर्ता पहनकर मंचों पर गला साफ करने में जुट गए। उत्तर प्रदेश की अंदर ही अंदर बदलती जनता का कांग्रेसियों को अंदाजा ही नहीं लग रहा था। इसका सही-सही अंदाजा RSS को लग रहा था। वजह ये थी कि कांग्रेसी नेता मंचों पर थे -- बरसों की विरासत के साथ और RSS लोगों के पास जमीन में जुटकर काम कर रहा था।
उस वक्त जो दो बातें थीं। कांग्रेसी नेताओं से जनता ऊब चुकी थी और समाज में पिछड़ी और दबी-कुचली जातियां ऊपर उठने की कोशिश कर रही थीं। संघ ने अपनी विचारधारा से लोगों को जोड़ने की कोशिश की। साथ ही पिछड़ी-दबी-कुचली जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश की। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, मंडल आंदोलन ने RSS और बीजेपी की काम बिगाड़ना शुरू कर दिया।
1989 में RSS-बीजेपी ने समय की नजाकत समझी और मंडल-कमंडल का गठबंधन हो गया। दोनों को फायदा हुआ लोकसभा में जनता दल को 143 सीटें मिलीं और बीजेपी को 89। बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि थी 1984 में सिर्फ दो संसद सदस्यों वाली पार्टी के पास लोकसभा में 89 सांसद हो गए थे। RSS की राजनीतिक शाखा उत्थान पर थी आगे संघ के प्रिय आडवाणीजी की रथयात्रा निकली और पार्टी और आगे पहुंच गई 1991 में अयोध्या (भगवान राम) ने बीजेपी को 119 सीटें दिला दीं।
बीजेपी उत्तर प्रदेश और पूरे देश में जम चुकी थी। कई राज्यों में सरकारें भी बन गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की मेहनत काफी हद तक काम पूरा कर चुकी थी। 1999 में एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद बचाखुचा काम भी पूरा हो गया।
बस यहीं से बीजेपी के कांग्रेस बनने की शुरुआत हो गई। अब RSS ने बीजेपी से अखबारों-टीवी चैनलों की बहसों में किनारा करना शुरू कर दिया। स्वेदशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के सभी अनुषांगिक संगठन बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मुद्दों पर बीजेपी के खिलाफ नारा लगाने लगे थे। अटल-आडवाणी और सिंघल-तोगड़िया की मुलाकात अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। अब बीजेपी-RSS को ये पता नहीं लग पा रहा था कि अंदर-अंदर जनता कैसे बदल रही है। पता तब लगा जब इंडिया शाइनिंग का नारा फ्लॉप हुआ और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सत्ता में आ गई।
लेकिन, तब तक RSS-VHP-SWADESHI JAGARAN MANCH बीजेपी से पूरी तरह दूर हो चुका था। और, यूपी में बीजेपी का वोटर बीजेपी से। वो उत्तर प्रदेश ही था जहां से कांग्रेस गायब हुई तो, आजतक वापसी का इंतजार कर रही है। उत्तर प्रदेश में संघ के ज्यादातर दिग्गज अब बीजेपी में थे और संघ को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब एजेंडा तय करने का काम संघ नहीं बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, मुश्किल वही कि एजेंडा तय करने वाले बीजेपी के नेता अब मंचों पर थे और जमीन पर काम करने वाले बचे-खुचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वयंसेवा में लग गए थे। कोई ऐसा प्रेरणा देने वाला नेता भी उन्हें नजर नहीं आ रहा था। संघ ने बीजेपी को छोड़कर अपनी शाखाएं लगानी शुरू कर दीं लेकिन, शाखाओं में मुख्य शिक्षक के अलावा ध्वज प्रणाम लेने वाले भी मुश्किल से ही मिल रहे थे।
वजह ये नहीं थी कि लोगों को संघ की विचारधार अचानक इतनी बुरी लगने लगी थी कि वो शाखा नहीं जाना चाहते थे। वजह ये थी कि उन्हें ये दिख रहा था कि उन्हें शाखा से निकालकर बीजेपी विधायक सांसद के चुनाव में पर्ची काटने पर लगाने वाले RSS के प्रचारक सत्ता की मलाई काटने में लगे थे। RSS-बीजेपी के कैडर/नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया था। ये जब ब्राह्मणों को अपना वोटबैंक समझकर दूसरों को लुभाने में लगे थे। तो, पिछले दो दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पहुंच गया ब्राह्मण बीएसपी कोऑर्डिनेटर के साथ बैठकर मुलायम के गुंडाराज के खिलाफ स्ट्रैटेजी तैयार कर रहा था। 1991 से कमल निशान पर ही वोट डालता आ रहा पक्का संघी वोटर भी 2007 में पलट गया और इलाहाबाद की शहर उत्तरी जैसी सीट से भी कमल गायब हो गया। ये वो सीट थी जहां हर दूसरे पार्क में 2000 तक शाखा लगती थी और हर मोहल्ले में दस घर ऐसे होते थे जहां हफ्ते में एक बार प्रचारक भोजन के लिए आते थे। अब सुविधाएं बढीं तो, प्रचारकों को स्वयंसेवकों के घर भोजन करने की जरूरत खत्म हो गई। और, इसी के साथ संघ का सीधे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क भी खत्म हो गया। सीधे संपर्क का यही वो रास्ता था जिसके जरिए संघ ने राम मंदिर आंदोलन खड़ा किया था। ये एकदम सही नहीं है कि राम मंदिर आंदोलन खड़ा होने से संघ से लोग जुड़े। संघ-बीजेपी के लोग भी इस भ्रम में आ गए कि जयश्रीराम के नारे की वजह से ही लोग बीजेपी-संघ के साथ खड़े हो रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही थी कि जब संघ के स्वयंसेवक लोगों के परिवार का हिस्सा बन गए थे, जब लोगों के निजी संपर्क में थे, जब उनके दुखदर्द परेशानी में उनके साथ खड़े थे तो, संघ का हर नारा बुलंद हुआ। लेकिन, जब संघ के लोग सत्ता के लोभी होने लगे। जब संघ के स्वयंसेवक सिर्फ विधानसभा/लोकसभा टिकट, पेट्रोलपंप/गैस एजेंसी के लिए संघ कार्यालयों से झोला लेकर निकलने लगे तो, संघ की शाखाओं में सिर्फ टिकटार्थी और सत्ता से सुख पाने के लोभी ही बचे। जाति के समीकरण ज्यादा हावी हुए लेकिन, इस बार अंदर ही अंदर।
जब बीजेपी विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ तो, भी RSS, बीजेपी के साथ कहीं नहीं दिख रहा था। बीजेपी का व्यवहार लोगों में ये भ्रम पैदा कर रहा था कि कहीं बीजेपी-समाजवादी पार्टी का कहीं अंदर ही अंदर कोई समझौता तो नहीं हो गया है। और, मायावती दहाड़ रही थी- मेरे सत्ता में आने के बाद गुंडे या तो जेल में होंगे या प्रदेश से बाहर। बचे-खुचे संघ के स्वयंसेवक भी बहनजी के कार्यकाल को मुलायम से बेहतर बता रहे थे।
अब भी बीजेपी और संघ के लोग नेता और स्ट्रैटेजी बदलकर 2009 का लोकसभा का चुनाव जीतने का भरोसा पाल रहे हैं। लेकिन, ये साफ है कि अगर संघ सचमुच चाहता है कि बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में बेहतर करे तो, उसे लोगों से संपर्क जोड़ने होंगे और अपने मूल काम स्वयंसेवक तैयार करने पर ही जोर-शोर से लगना होगा। नेता तैयार करने का काम बीजेपी पर ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन, संघ अभी भी अपने मूल काम को छोड़कर इस समीक्षा में लगा हुआ है कि बीजेपी की हार की वजह आधे मन से हिंदुत्व को अपनाना है। दरअसल बीजेपी की हार की वजह ये है कि उसका कोई आधार नहीं रहा। ये आधार बीजेपी को संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों से मिलता रहा है। इसलिए, RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में बीजेपी को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहराना संघ का सच्चाई से आंख मूंदने जैसा लग रहा है। सही बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक, RSS का सिस्टम फेल हुआ है।
यूपी के चुनाव नतीजे बीजेपी की हार नहीं है। ये हार है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की। संघ के विचारों के यूपी के जातियों में बंटे धरातल पर फेल होने की। यूपी के चुनाव को बीजेपी की हार बताना RSS के और कमजोर होने का रास्ता बना रहा है। यूपी चुनाव में मायावती के पूर्ण बहुमत पाने के बाद RSS ने बीजेपी की हार की जो वजह बताई वो ये कि बीजेपी ने आधे मन से हिंदुत्व का रास्ता अपना लिया। और, मायावती ने इंदिरा गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के फॉर्मूले से चुनाव जीत लिया।
दरअसल उत्तर प्रदेश में हुआ ये परिवर्तन सिर्फ बीजेपी की हार जितना सीधा सा नहीं है। ये कुछ वैसा ही परिवर्तन है जैसा यूपी में कांग्रेस के खिलाफ 1984 के बाद हुआ था। 1984 में भी इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति की लहर न आई होती तो, शायद कांग्रेस को चेतने का समय मिल जाता। लेकिन, 1984 में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो, गदगद कांग्रेसी टिनोपाल लगा कुर्ता पहनकर मंचों पर गला साफ करने में जुट गए। उत्तर प्रदेश की अंदर ही अंदर बदलती जनता का कांग्रेसियों को अंदाजा ही नहीं लग रहा था। इसका सही-सही अंदाजा RSS को लग रहा था। वजह ये थी कि कांग्रेसी नेता मंचों पर थे -- बरसों की विरासत के साथ और RSS लोगों के पास जमीन में जुटकर काम कर रहा था।
उस वक्त जो दो बातें थीं। कांग्रेसी नेताओं से जनता ऊब चुकी थी और समाज में पिछड़ी और दबी-कुचली जातियां ऊपर उठने की कोशिश कर रही थीं। संघ ने अपनी विचारधारा से लोगों को जोड़ने की कोशिश की। साथ ही पिछड़ी-दबी-कुचली जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश की। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, मंडल आंदोलन ने RSS और बीजेपी की काम बिगाड़ना शुरू कर दिया।
1989 में RSS-बीजेपी ने समय की नजाकत समझी और मंडल-कमंडल का गठबंधन हो गया। दोनों को फायदा हुआ लोकसभा में जनता दल को 143 सीटें मिलीं और बीजेपी को 89। बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि थी 1984 में सिर्फ दो संसद सदस्यों वाली पार्टी के पास लोकसभा में 89 सांसद हो गए थे। RSS की राजनीतिक शाखा उत्थान पर थी आगे संघ के प्रिय आडवाणीजी की रथयात्रा निकली और पार्टी और आगे पहुंच गई 1991 में अयोध्या (भगवान राम) ने बीजेपी को 119 सीटें दिला दीं।
बीजेपी उत्तर प्रदेश और पूरे देश में जम चुकी थी। कई राज्यों में सरकारें भी बन गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की मेहनत काफी हद तक काम पूरा कर चुकी थी। 1999 में एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद बचाखुचा काम भी पूरा हो गया।
बस यहीं से बीजेपी के कांग्रेस बनने की शुरुआत हो गई। अब RSS ने बीजेपी से अखबारों-टीवी चैनलों की बहसों में किनारा करना शुरू कर दिया। स्वेदशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के सभी अनुषांगिक संगठन बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मुद्दों पर बीजेपी के खिलाफ नारा लगाने लगे थे। अटल-आडवाणी और सिंघल-तोगड़िया की मुलाकात अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। अब बीजेपी-RSS को ये पता नहीं लग पा रहा था कि अंदर-अंदर जनता कैसे बदल रही है। पता तब लगा जब इंडिया शाइनिंग का नारा फ्लॉप हुआ और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सत्ता में आ गई।
लेकिन, तब तक RSS-VHP-SWADESHI JAGARAN MANCH बीजेपी से पूरी तरह दूर हो चुका था। और, यूपी में बीजेपी का वोटर बीजेपी से। वो उत्तर प्रदेश ही था जहां से कांग्रेस गायब हुई तो, आजतक वापसी का इंतजार कर रही है। उत्तर प्रदेश में संघ के ज्यादातर दिग्गज अब बीजेपी में थे और संघ को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब एजेंडा तय करने का काम संघ नहीं बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, मुश्किल वही कि एजेंडा तय करने वाले बीजेपी के नेता अब मंचों पर थे और जमीन पर काम करने वाले बचे-खुचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वयंसेवा में लग गए थे। कोई ऐसा प्रेरणा देने वाला नेता भी उन्हें नजर नहीं आ रहा था। संघ ने बीजेपी को छोड़कर अपनी शाखाएं लगानी शुरू कर दीं लेकिन, शाखाओं में मुख्य शिक्षक के अलावा ध्वज प्रणाम लेने वाले भी मुश्किल से ही मिल रहे थे।
वजह ये नहीं थी कि लोगों को संघ की विचारधार अचानक इतनी बुरी लगने लगी थी कि वो शाखा नहीं जाना चाहते थे। वजह ये थी कि उन्हें ये दिख रहा था कि उन्हें शाखा से निकालकर बीजेपी विधायक सांसद के चुनाव में पर्ची काटने पर लगाने वाले RSS के प्रचारक सत्ता की मलाई काटने में लगे थे। RSS-बीजेपी के कैडर/नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया था। ये जब ब्राह्मणों को अपना वोटबैंक समझकर दूसरों को लुभाने में लगे थे। तो, पिछले दो दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पहुंच गया ब्राह्मण बीएसपी कोऑर्डिनेटर के साथ बैठकर मुलायम के गुंडाराज के खिलाफ स्ट्रैटेजी तैयार कर रहा था। 1991 से कमल निशान पर ही वोट डालता आ रहा पक्का संघी वोटर भी 2007 में पलट गया और इलाहाबाद की शहर उत्तरी जैसी सीट से भी कमल गायब हो गया। ये वो सीट थी जहां हर दूसरे पार्क में 2000 तक शाखा लगती थी और हर मोहल्ले में दस घर ऐसे होते थे जहां हफ्ते में एक बार प्रचारक भोजन के लिए आते थे। अब सुविधाएं बढीं तो, प्रचारकों को स्वयंसेवकों के घर भोजन करने की जरूरत खत्म हो गई। और, इसी के साथ संघ का सीधे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क भी खत्म हो गया। सीधे संपर्क का यही वो रास्ता था जिसके जरिए संघ ने राम मंदिर आंदोलन खड़ा किया था। ये एकदम सही नहीं है कि राम मंदिर आंदोलन खड़ा होने से संघ से लोग जुड़े। संघ-बीजेपी के लोग भी इस भ्रम में आ गए कि जयश्रीराम के नारे की वजह से ही लोग बीजेपी-संघ के साथ खड़े हो रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही थी कि जब संघ के स्वयंसेवक लोगों के परिवार का हिस्सा बन गए थे, जब लोगों के निजी संपर्क में थे, जब उनके दुखदर्द परेशानी में उनके साथ खड़े थे तो, संघ का हर नारा बुलंद हुआ। लेकिन, जब संघ के लोग सत्ता के लोभी होने लगे। जब संघ के स्वयंसेवक सिर्फ विधानसभा/लोकसभा टिकट, पेट्रोलपंप/गैस एजेंसी के लिए संघ कार्यालयों से झोला लेकर निकलने लगे तो, संघ की शाखाओं में सिर्फ टिकटार्थी और सत्ता से सुख पाने के लोभी ही बचे। जाति के समीकरण ज्यादा हावी हुए लेकिन, इस बार अंदर ही अंदर।
जब बीजेपी विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ तो, भी RSS, बीजेपी के साथ कहीं नहीं दिख रहा था। बीजेपी का व्यवहार लोगों में ये भ्रम पैदा कर रहा था कि कहीं बीजेपी-समाजवादी पार्टी का कहीं अंदर ही अंदर कोई समझौता तो नहीं हो गया है। और, मायावती दहाड़ रही थी- मेरे सत्ता में आने के बाद गुंडे या तो जेल में होंगे या प्रदेश से बाहर। बचे-खुचे संघ के स्वयंसेवक भी बहनजी के कार्यकाल को मुलायम से बेहतर बता रहे थे।
अब भी बीजेपी और संघ के लोग नेता और स्ट्रैटेजी बदलकर 2009 का लोकसभा का चुनाव जीतने का भरोसा पाल रहे हैं। लेकिन, ये साफ है कि अगर संघ सचमुच चाहता है कि बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में बेहतर करे तो, उसे लोगों से संपर्क जोड़ने होंगे और अपने मूल काम स्वयंसेवक तैयार करने पर ही जोर-शोर से लगना होगा। नेता तैयार करने का काम बीजेपी पर ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन, संघ अभी भी अपने मूल काम को छोड़कर इस समीक्षा में लगा हुआ है कि बीजेपी की हार की वजह आधे मन से हिंदुत्व को अपनाना है। दरअसल बीजेपी की हार की वजह ये है कि उसका कोई आधार नहीं रहा। ये आधार बीजेपी को संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों से मिलता रहा है। इसलिए, RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में बीजेपी को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहराना संघ का सच्चाई से आंख मूंदने जैसा लग रहा है। सही बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक, RSS का सिस्टम फेल हुआ है।
यूपी के चुनाव बीजेपी-कांग्रेस के लिए सबक
Friday, May 11, 2007
यूपी में मायाराज हो गया है। और, ये सबसे बुरी खबर दिखती है मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के लिए। लेकिन, नतीजे आने के बाद माया मैडम का गुणगान करने वाले बीजेपी औऱ कांग्रेस नेताओं के लिए ये बड़ा सबक है क्योंकि, देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अपना कोई वोटबैंक ही नहीं रह गया है।
यूपी का जनादेश सचमुच सबसे बुरी खबर मुलायम सिंह यादव के लिए ही लेकर आया है। मुख्यमंत्री रहते हुए माया मेमसाहब से उन्होंने जो व्यक्तिगत दुश्मनी पाल ली थी। अब मायाराज होने से उन्हें अपने सारे कारनामों का तगड़ा हिसाब देना पड़ सकता है। और, चुनाव के पहले से ही हाथी की चिंघाड़ से डरा सपा का कार्यकर्ता शायद ही अपने नेताजी के साथ मुखर होकर खड़ा हो सके। लेकिन, मुलायम के लिए अच्छी खबर ये है कि उनकी जमीनी ताकत बढ़ी ही है भले सीटें कम हुई हों। मुलायम को दो हजार दो के चुनाव से दो प्रतिशत ज्यादा 27 प्रतिशत वोट मिले हैं।
मुलायम से यूपी का राज छिना तो, ब्राह्मण-दलित-अति पिछड़ों के हाथी की सवारी से साफ है कि ये फॉर्मूला चलता रहा तो, 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी का कमल खिलने में बहुत मुश्किलें हैं। अब बीजेपी को ये भी सोचना होगा कि वो आडवाणी के ही नेतृत्व की ओर फिर मुंह ताके या फिर नए नेतृत्व की तलाश करे। साथ ही सवाल ये भी है कि क्या आडवाणी हिंदुत्व और जयश्रीराम के नारे के दम पर ही सत्ता तलाशता रहेगा। या फिर अपने कैडर-कार्यकर्ता को मजबूत करके दिल्ली की गद्दी पर मजबूती से काबिज होने की कोशिश करेगा। वैसे बीजेपी के लिए बुरी खबर ये है कि हिंदुत्व के नाम पर अब तक उसके पाले में आता रहा उसका ब्राह्मण-बनिया वोटबैंक भी इस बार बसपा के साथ सरक गया है। साफ है कि माया मेमसाहब ने बीजेपी का वो हाल कर दिया है जो, कांग्रेस का 1989 के बाद हुआ था। यानी साफ है कि देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अब अपना कोई वोटबैंक नहीं रह गया है।
राजनीति में राहुल बाबा अभी बच्चे ही हैं ये भी इन चुनावों ने साबित किया है। राहुल गांधी को उनके जनता से पूरी तरह कट चुके सलाहकारों ने जो समझाया -- और उसके बाद जो वो बोले -- उससे वो भी कांग्रेस से जुड़ने से पहले ही कट गए। जो, राहुल गांधी के रोड शो में आई भीड़ को कांग्रेस की तरफ आता वोटबैंक समझकर कांग्रेस के लिए वोट डालने का मन बना रहे थे। कुल मिलाकर इन चुनावों से ये बात और पुख्ता हो गई कि फिलहाल तो कांग्रसे बस यूपी के दो जिलों सुल्तानपुर-रायबरेली की ही पार्टी बनकर रह गई है। वैसे कांग्रेस के लिए अच्छी खबर ये है कि माया मैडम को पूर्ण बहुमत मिल गया है। लेकिन, ये अच्छी खबर तभी रहेगी जब पार्टी राज्य में सत्ता की भागीदारी के सुख की तलाश छोड़कर अगले पांच साल कार्यकर्ताओं को खड़ा करने में लगाए। लेकिन, मायावती जिस तेवर में नजर आ रही हैं उसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी-कांग्रेस के लिए यूपी से होकर दिल्ली जाने वाला रास्ते की मुश्किलें बहुत बढ़ गई हैं। और, मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने जो, कुशल प्रशासक और खांटी नेता जैसे तेवर दिखाएं हैं उससे दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का आने वाले लोकसभा चुनाव और कठिन हो सकता है।
यूपी में मायाराज हो गया है। और, ये सबसे बुरी खबर दिखती है मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के लिए। लेकिन, नतीजे आने के बाद माया मैडम का गुणगान करने वाले बीजेपी औऱ कांग्रेस नेताओं के लिए ये बड़ा सबक है क्योंकि, देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अपना कोई वोटबैंक ही नहीं रह गया है।
यूपी का जनादेश सचमुच सबसे बुरी खबर मुलायम सिंह यादव के लिए ही लेकर आया है। मुख्यमंत्री रहते हुए माया मेमसाहब से उन्होंने जो व्यक्तिगत दुश्मनी पाल ली थी। अब मायाराज होने से उन्हें अपने सारे कारनामों का तगड़ा हिसाब देना पड़ सकता है। और, चुनाव के पहले से ही हाथी की चिंघाड़ से डरा सपा का कार्यकर्ता शायद ही अपने नेताजी के साथ मुखर होकर खड़ा हो सके। लेकिन, मुलायम के लिए अच्छी खबर ये है कि उनकी जमीनी ताकत बढ़ी ही है भले सीटें कम हुई हों। मुलायम को दो हजार दो के चुनाव से दो प्रतिशत ज्यादा 27 प्रतिशत वोट मिले हैं।
मुलायम से यूपी का राज छिना तो, ब्राह्मण-दलित-अति पिछड़ों के हाथी की सवारी से साफ है कि ये फॉर्मूला चलता रहा तो, 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी का कमल खिलने में बहुत मुश्किलें हैं। अब बीजेपी को ये भी सोचना होगा कि वो आडवाणी के ही नेतृत्व की ओर फिर मुंह ताके या फिर नए नेतृत्व की तलाश करे। साथ ही सवाल ये भी है कि क्या आडवाणी हिंदुत्व और जयश्रीराम के नारे के दम पर ही सत्ता तलाशता रहेगा। या फिर अपने कैडर-कार्यकर्ता को मजबूत करके दिल्ली की गद्दी पर मजबूती से काबिज होने की कोशिश करेगा। वैसे बीजेपी के लिए बुरी खबर ये है कि हिंदुत्व के नाम पर अब तक उसके पाले में आता रहा उसका ब्राह्मण-बनिया वोटबैंक भी इस बार बसपा के साथ सरक गया है। साफ है कि माया मेमसाहब ने बीजेपी का वो हाल कर दिया है जो, कांग्रेस का 1989 के बाद हुआ था। यानी साफ है कि देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अब अपना कोई वोटबैंक नहीं रह गया है।
राजनीति में राहुल बाबा अभी बच्चे ही हैं ये भी इन चुनावों ने साबित किया है। राहुल गांधी को उनके जनता से पूरी तरह कट चुके सलाहकारों ने जो समझाया -- और उसके बाद जो वो बोले -- उससे वो भी कांग्रेस से जुड़ने से पहले ही कट गए। जो, राहुल गांधी के रोड शो में आई भीड़ को कांग्रेस की तरफ आता वोटबैंक समझकर कांग्रेस के लिए वोट डालने का मन बना रहे थे। कुल मिलाकर इन चुनावों से ये बात और पुख्ता हो गई कि फिलहाल तो कांग्रसे बस यूपी के दो जिलों सुल्तानपुर-रायबरेली की ही पार्टी बनकर रह गई है। वैसे कांग्रेस के लिए अच्छी खबर ये है कि माया मैडम को पूर्ण बहुमत मिल गया है। लेकिन, ये अच्छी खबर तभी रहेगी जब पार्टी राज्य में सत्ता की भागीदारी के सुख की तलाश छोड़कर अगले पांच साल कार्यकर्ताओं को खड़ा करने में लगाए। लेकिन, मायावती जिस तेवर में नजर आ रही हैं उसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी-कांग्रेस के लिए यूपी से होकर दिल्ली जाने वाला रास्ते की मुश्किलें बहुत बढ़ गई हैं। और, मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने जो, कुशल प्रशासक और खांटी नेता जैसे तेवर दिखाएं हैं उससे दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का आने वाले लोकसभा चुनाव और कठिन हो सकता है।
नेताओं की करतूत से लोकतंत्र पर हावी नौकरशाही
Sunday, May 06, 2007
उत्तर प्रदेश में चुनाव बिना किसी गड़बड़ी के पूरा हो रहा है। सिर्फ आखिरी सातवां चरण बाकी है। ये सब हो सका है चुनाव आयोग की सख्ती से। निस्संदेह चुनाव आयोग को बधाई मिलनी चाहिए। शुरू से ही सात चरणों में चुनाव कराए जाने पर आयोग की दबी जुबान से ही सही आलोचना भी हो रही थी।लेकिन, चुनाव आयोग ने साफ कह दिया कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ये जरूरी है।सेना और दूसरी पैरामिलिट्री फोर्सेज को चुनाव आयोग ने लोकतंत्र की पहरेदारी में लगा दिया। फर्जी वोट डालने वाले दूर से ही नमस्ते करते दिखे। और, जिन्होंने इसके बाद भी हिम्मत दिखाई वो, जवानों की बूट की ठोकर खाने के बाद सुधरे।
लेकिन, क्या सचमुच उत्तर प्रदेश के चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और हुए भी हैं तो क्या ये निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूती दिखा रहे हैं। दो छोटे उदाहरण हैं जिनसे साफ है कि चुनाव निष्पक्ष भले ही हुए हों। लोकतंत्रपिसता नजर आ रहाहै और, इसके लिए जिम्मेदार नेता ही हैं।उन्होंने नौकरशाही को ऐसा मौका दिया कि अब उनसे भी मामला संभालते नहीं बन रहा। नौकरशाही के हावी होने के दोनों उदाहरणनेताओं से ही जुड़े हैं। पहला उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद का ही नाम मतदाता सूची से गायब है। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के बड़े नेता हैं और लुइस तो खुद ही फरुखाबाद की कायमगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं। अब सवाल ये कि क्या चुनाव आयोग की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि फर्जी वोट न पड़े इसके साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे कि जो वोट देने के लायक हैं वो वोट डाल सकें। और, अगर खुद चुनाव लड़ने वाले का ही नाम मतदाता सूची से गायब है तो, फिर ये कैसे माना जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष हैं क्योंकि खुद प्रत्याशी ही अपने पक्ष में वोट नहीं डाल सकता। लुइस खुर्शीद और सलमान खुर्शीद का आरोप है कि कायमगंज विधानसभा में पैंसठ हजार वोट फर्जी जुड़े हैं जबकि, असली वोटरों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।
दूसरा मामला सपा नेता अमर सिंह से जुड़ा है। अमर सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह ने माना है कि उनकेबड़े भाई अमर सिंह दो-दो जगह से वोट डालने की हैसियत में हैं। क्योंकि, उनका नाम गाजियाबाद के अलावा आजमगढ़ के पैतृक घर से भी वोटर लिस्ट में शामिल है। ये दो बड़े उदाहरण हैं जो, साफ कर देते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए हैं। हां, इतना जरूर हुआ कि बिना वोटर लिस्ट में नाम और हाथ में मतदाता पहचान पत्र के लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। लेकिन, अब इस बात की जिम्मेदारी किसकी होगी कि बूथ के बाहर से भगाए गए लोग फर्जी वोटर थे या फिर उनके भी नाम सलमान और लुइश खुर्शीद की तरह मतदाता सूची से पहले से ही साफ कर दिया गया था। और, कई ऐसे वोटर भी थे उत्तर प्रदेश की एक ही या अलग-अलग विधानसभा में कई-कई वोट डाल रहे थे।
कई घरों में तो हाल ये था किलोकसभा और नगर निगम चुनावों में वोटडालने वाले ही इस चुनाव में वोटर लिस्ट से बाहर कर दिए गए थे। मतदात पहचान पत्र उनके पास थे भी तो, सेना के कड़क जवाने के सामने जिरह करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। शायद यही वजह रही कि किसी भी चरण में मतदान का प्रतिशत पचास के नीचे ही रहा। कई घरों में तो घर का मुखिया घर के लोगों दूर से ही छोड़कर आया क्योंकि, उसका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब हो गया था।
दरअसल ये पिछल साठ सालों से नेताओं की करतूत थी। जिसका खामियाजा अब देश का लोकतंत्र भुगत रहा है। और, इन नेताओं ने लोकतंत्र का इतना मजाक-फायदा उठाया है कि लोकतंत्र के लोग भी चुनाव आयोग की ज्यादतियों को व्यवस्था की सफाई का हिस्सा मानकर चुप बैठे हैं। सच्चाई ये है कि व्यवस्था की सफाई के साथ ही नौकरशाही के हावी होने की शुरुआत भी हो गई है।पूरा चुनाव भर नौकरशाही तानाशाही पर उतारू रही और व्यवस्था की बरबादी के नेता सहमे रहे। और, फिर नेताओंके पीछे रहने वाली जनता कैसे बोल पाती।
अब तक उत्तर प्रदेश का जनादेश जिधर जाता दिख रहा है, उससे लग रहा है कि जल्द ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश के लोगों को एक बार फिर से सेना की संगीनों के साये में ज्यादा बिगड़े नेताओं में से कम बिगड़े नेता का चुनाव करना होगा। इसलिए जरूरी ये है कि आगे से चुनाव आयोग के भरोसे बैठने की बजाए लोग ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। क्योंकि, नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो, लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही तानाशाही की भेंट चढ़ जाएंगे।
उत्तर प्रदेश में चुनाव बिना किसी गड़बड़ी के पूरा हो रहा है। सिर्फ आखिरी सातवां चरण बाकी है। ये सब हो सका है चुनाव आयोग की सख्ती से। निस्संदेह चुनाव आयोग को बधाई मिलनी चाहिए। शुरू से ही सात चरणों में चुनाव कराए जाने पर आयोग की दबी जुबान से ही सही आलोचना भी हो रही थी।लेकिन, चुनाव आयोग ने साफ कह दिया कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ये जरूरी है।सेना और दूसरी पैरामिलिट्री फोर्सेज को चुनाव आयोग ने लोकतंत्र की पहरेदारी में लगा दिया। फर्जी वोट डालने वाले दूर से ही नमस्ते करते दिखे। और, जिन्होंने इसके बाद भी हिम्मत दिखाई वो, जवानों की बूट की ठोकर खाने के बाद सुधरे।
लेकिन, क्या सचमुच उत्तर प्रदेश के चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और हुए भी हैं तो क्या ये निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूती दिखा रहे हैं। दो छोटे उदाहरण हैं जिनसे साफ है कि चुनाव निष्पक्ष भले ही हुए हों। लोकतंत्रपिसता नजर आ रहाहै और, इसके लिए जिम्मेदार नेता ही हैं।उन्होंने नौकरशाही को ऐसा मौका दिया कि अब उनसे भी मामला संभालते नहीं बन रहा। नौकरशाही के हावी होने के दोनों उदाहरणनेताओं से ही जुड़े हैं। पहला उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद का ही नाम मतदाता सूची से गायब है। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के बड़े नेता हैं और लुइस तो खुद ही फरुखाबाद की कायमगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं। अब सवाल ये कि क्या चुनाव आयोग की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि फर्जी वोट न पड़े इसके साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे कि जो वोट देने के लायक हैं वो वोट डाल सकें। और, अगर खुद चुनाव लड़ने वाले का ही नाम मतदाता सूची से गायब है तो, फिर ये कैसे माना जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष हैं क्योंकि खुद प्रत्याशी ही अपने पक्ष में वोट नहीं डाल सकता। लुइस खुर्शीद और सलमान खुर्शीद का आरोप है कि कायमगंज विधानसभा में पैंसठ हजार वोट फर्जी जुड़े हैं जबकि, असली वोटरों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।
दूसरा मामला सपा नेता अमर सिंह से जुड़ा है। अमर सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह ने माना है कि उनकेबड़े भाई अमर सिंह दो-दो जगह से वोट डालने की हैसियत में हैं। क्योंकि, उनका नाम गाजियाबाद के अलावा आजमगढ़ के पैतृक घर से भी वोटर लिस्ट में शामिल है। ये दो बड़े उदाहरण हैं जो, साफ कर देते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए हैं। हां, इतना जरूर हुआ कि बिना वोटर लिस्ट में नाम और हाथ में मतदाता पहचान पत्र के लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। लेकिन, अब इस बात की जिम्मेदारी किसकी होगी कि बूथ के बाहर से भगाए गए लोग फर्जी वोटर थे या फिर उनके भी नाम सलमान और लुइश खुर्शीद की तरह मतदाता सूची से पहले से ही साफ कर दिया गया था। और, कई ऐसे वोटर भी थे उत्तर प्रदेश की एक ही या अलग-अलग विधानसभा में कई-कई वोट डाल रहे थे।
कई घरों में तो हाल ये था किलोकसभा और नगर निगम चुनावों में वोटडालने वाले ही इस चुनाव में वोटर लिस्ट से बाहर कर दिए गए थे। मतदात पहचान पत्र उनके पास थे भी तो, सेना के कड़क जवाने के सामने जिरह करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। शायद यही वजह रही कि किसी भी चरण में मतदान का प्रतिशत पचास के नीचे ही रहा। कई घरों में तो घर का मुखिया घर के लोगों दूर से ही छोड़कर आया क्योंकि, उसका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब हो गया था।
दरअसल ये पिछल साठ सालों से नेताओं की करतूत थी। जिसका खामियाजा अब देश का लोकतंत्र भुगत रहा है। और, इन नेताओं ने लोकतंत्र का इतना मजाक-फायदा उठाया है कि लोकतंत्र के लोग भी चुनाव आयोग की ज्यादतियों को व्यवस्था की सफाई का हिस्सा मानकर चुप बैठे हैं। सच्चाई ये है कि व्यवस्था की सफाई के साथ ही नौकरशाही के हावी होने की शुरुआत भी हो गई है।पूरा चुनाव भर नौकरशाही तानाशाही पर उतारू रही और व्यवस्था की बरबादी के नेता सहमे रहे। और, फिर नेताओंके पीछे रहने वाली जनता कैसे बोल पाती।
अब तक उत्तर प्रदेश का जनादेश जिधर जाता दिख रहा है, उससे लग रहा है कि जल्द ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश के लोगों को एक बार फिर से सेना की संगीनों के साये में ज्यादा बिगड़े नेताओं में से कम बिगड़े नेता का चुनाव करना होगा। इसलिए जरूरी ये है कि आगे से चुनाव आयोग के भरोसे बैठने की बजाए लोग ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। क्योंकि, नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो, लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही तानाशाही की भेंट चढ़ जाएंगे।
किसका चुनाव करेंगे बुलेट या बैलेट
Tuesday, April 10, 2007
उत्तर प्रदेश में 30 सांसद और 150 विधायक अपराधिक रिकॉर्ड वाले हैं। यानी ये वे लोग हैं जिनके डर के बाद भी लोगों ने इनके खिलाफ मुकदमे दर्ज करा दिये हैं। पता नहीं खबर बिग बी --- शहंशाह अमिताभ बच्चन ने पढ़ी-सुनी या नहीं। खबर बच्च्न साहब के लिए ज्यादा महत्व की इसलिए भी है क्योंकि,सिर्फ बच्चन साहब ही दम ठोंककर ये कह रहे हैं यूपी में बहुत दम हैं क्योंकि जुर्म यहां कम है। और, बच्चन साहब और उनके दोस्त अमर सिंह का जानकारी के लिए ये आंकड़े किसी मीडिया हाउस के या विपक्षी पार्टी के आरोप नहीं हैं ये आकंड़े हैं उत्तर प्रदेश के गृह विभाग के-- यानी गृह विभाग जानते हुए भी इन अपराधियों की सुरक्षा के लिए पुलिसबल का इंतजाम करताहै, वजह सिर्फ इतनी कि ये आपके वोट की ताकत से चुने हुए जनप्रतिनिधि है। ------
ये वो जनप्रतिनिधि हैं जिनको आपने पिछले विधानसबा और लोकसभा चुनाव में वोट दिया कि वो आपके बुनियादी हक के लिए लड़ाई लड़ेंगे जिससे आपकी जिंदगी कुछ औऱ बेहतर हो सकेगी। कम से कम वोट मांगते वक्त तो इनका यही दावा था। लेकिन, ऐसे जनप्रितिनिधि क्या खास आपके हकों की लड़ाई लड़ पाएंगे। जिनका आधा से ज्यादा समयअदालतों में सिर्फ इसलिए बीत जाता है कि कहीं अदालत इन्हें अपराधी घोषित न कर दे और अगली बार ये आपसे ये वादा करने न आ पाएं कि हम आपकी जिंदगी के हालात सुधारने आ रहे हैं । तो, इस बार वोट डालने जाइए तो, जरा संभलकर क्योंकि, बैलेट बुलेट पर पांच साल में सिर्फ एक ही दिन भारी पड़ता है और तो, सत्ता और अपराधियों का गठजोड़ बैलेट को बुलेट दिखाकर डराता ही रहता है। यूपी के अपराधी सांसदों -विधायकों की गृह विभाग ने आज सूची पेश की है औरआज ही एक और खबरआई है। फैजाबाद के मिल्कीपुर विधायक रामचंद्र यादव को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। अब आप कहेंगे कि जब 150 विधायकों के खिलाफ अपराधिक मामले हैं तो फिर किसी विधायक की गिरफ्तारी की खबर मेंखासक्याहै। लेकिन, ये खास इसलिए है क्योंकि, समाजवादी पार्टी के इन विधायक जी के खिलाफ कोर्ट ने गैरजमानती वारंट जारी कर रखा था। और, अब ये पकड़ में इसलिए आ गए हैंकि इन्हें चुनाव लड़ना है। वरना तो, ये मजे से घूम रहे थे लेकिन, पुलिस को ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे।और, इन साहब के चुनाव प्रचार में जो जी-जान से जुटे हैं वो हैं मित्रसेन यादव-- ये भी कोई कम नहीं हैं-- असल बात इन दोनों खबरों जैसी ढेर सारी खबरें हमें रोज सुनने देखने को मिलती हैं लेकिन, हम हमारे ऊपर क्या असर होगा सोचकर इनके बगल से आंख मूंदकर निकल जाते है। आपको लग रहा होगा फिर मैं अभी हल्ला क्यों मचा रहाहूं। हल्ला मचाने की वजहहै यूपी विधानसभा के सात चरणों में होने वाले चुनाव। चुनाव आयोग ने सात चरणों में यहां वोटिंग का ऐलान किया है। दरअसल ऊपर की दोनों खबरें और चुनाव आयोग का सात चरणों में चुनाव का ऐलान , एक दूसरे से जुड़ी हुई खबरें हैं। असल बात ये है कि 150 विधायक- 30 सांसद(इतने लिस्टेड हैं) अपराधियों के अलावा दूसरे ऐसे ही रिकॉर्ड वाले अपराधियों (ये सब चुनाव भी लड़ेंगे।)
से निपटने की तैयारी में ही आयोग सात चरणों में चुनाव करा रहा है। यूपी की सीमा से लगे सभी राज्यों के डीजीपी भी अलर्ट हैं कि इस राज्यपर कहीं उनका कब्जा न हो जाए जो, गृह विभागके अपराधियों की सूची में होने के बाद भी गृह विभाग के ही मातहत आने वाले पुलिस की संगीनों के साये में अपराध करते घूमते रहें। लेकिन, ये चुनाव आयोग के बस की बात है ये मुझे नहीं लगता। क्योंकि, ये ताकत सिर्फ आपके हाथ में है।और मेरे कहने का आशय बिल्कुल भी ये नहीं है कि सिर्फ समाजवादी पार्टी में ही अपराधी रिकॉर्ड वाले लोग हैं। सभी पार्टियों में थोड़ कम-थोड़ा ज्यादा वाले अंदाज मे अपराधी सम्मानित हो रहे हैं। प्रदेश की 403 में से कम से कम 250 विधानसभा ऐसी हैं जिसमें डेमोक्रेसी का लिटमस टेस्ट होना है। क्योंकि, इन विधानसभा से पहले से चुने हुए विधायक या फिर विधायकजी बनने की इच्छा रखने वाले कोई सज्जन (साबित न होने तक यही कहा जाता है) नामांकन भर चुके हैं या फिर भरने की पूरी तैयारी कर चुके हैं।देश को राह दिखाने का दम भरने वाला उत्तम प्रदेश (अब सिर्फ विज्ञापनों में) उत्तरोत्तर गर्त में ही जाता दिख रहा है। तो, एक दिन अपनेऔर अपने प्रदेश के लिए मनबना लीजिए। सभी पार्टियों में थोड़े कम ज्यादा अपराधी और बचे खुचे शरीफ मिल ही जाएंगे।इसलिए कोशिश करके इस बार बचे खुचे शरीफों को अपराधी बनने रोकिए। नहीं तो, अगले विधासनभा चुनाव तक गृह विभाग की सूची शायद और लंबी होगी।
उत्तर प्रदेश में 30 सांसद और 150 विधायक अपराधिक रिकॉर्ड वाले हैं। यानी ये वे लोग हैं जिनके डर के बाद भी लोगों ने इनके खिलाफ मुकदमे दर्ज करा दिये हैं। पता नहीं खबर बिग बी --- शहंशाह अमिताभ बच्चन ने पढ़ी-सुनी या नहीं। खबर बच्च्न साहब के लिए ज्यादा महत्व की इसलिए भी है क्योंकि,सिर्फ बच्चन साहब ही दम ठोंककर ये कह रहे हैं यूपी में बहुत दम हैं क्योंकि जुर्म यहां कम है। और, बच्चन साहब और उनके दोस्त अमर सिंह का जानकारी के लिए ये आंकड़े किसी मीडिया हाउस के या विपक्षी पार्टी के आरोप नहीं हैं ये आकंड़े हैं उत्तर प्रदेश के गृह विभाग के-- यानी गृह विभाग जानते हुए भी इन अपराधियों की सुरक्षा के लिए पुलिसबल का इंतजाम करताहै, वजह सिर्फ इतनी कि ये आपके वोट की ताकत से चुने हुए जनप्रतिनिधि है। ------
ये वो जनप्रतिनिधि हैं जिनको आपने पिछले विधानसबा और लोकसभा चुनाव में वोट दिया कि वो आपके बुनियादी हक के लिए लड़ाई लड़ेंगे जिससे आपकी जिंदगी कुछ औऱ बेहतर हो सकेगी। कम से कम वोट मांगते वक्त तो इनका यही दावा था। लेकिन, ऐसे जनप्रितिनिधि क्या खास आपके हकों की लड़ाई लड़ पाएंगे। जिनका आधा से ज्यादा समयअदालतों में सिर्फ इसलिए बीत जाता है कि कहीं अदालत इन्हें अपराधी घोषित न कर दे और अगली बार ये आपसे ये वादा करने न आ पाएं कि हम आपकी जिंदगी के हालात सुधारने आ रहे हैं । तो, इस बार वोट डालने जाइए तो, जरा संभलकर क्योंकि, बैलेट बुलेट पर पांच साल में सिर्फ एक ही दिन भारी पड़ता है और तो, सत्ता और अपराधियों का गठजोड़ बैलेट को बुलेट दिखाकर डराता ही रहता है। यूपी के अपराधी सांसदों -विधायकों की गृह विभाग ने आज सूची पेश की है औरआज ही एक और खबरआई है। फैजाबाद के मिल्कीपुर विधायक रामचंद्र यादव को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। अब आप कहेंगे कि जब 150 विधायकों के खिलाफ अपराधिक मामले हैं तो फिर किसी विधायक की गिरफ्तारी की खबर मेंखासक्याहै। लेकिन, ये खास इसलिए है क्योंकि, समाजवादी पार्टी के इन विधायक जी के खिलाफ कोर्ट ने गैरजमानती वारंट जारी कर रखा था। और, अब ये पकड़ में इसलिए आ गए हैंकि इन्हें चुनाव लड़ना है। वरना तो, ये मजे से घूम रहे थे लेकिन, पुलिस को ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे।और, इन साहब के चुनाव प्रचार में जो जी-जान से जुटे हैं वो हैं मित्रसेन यादव-- ये भी कोई कम नहीं हैं-- असल बात इन दोनों खबरों जैसी ढेर सारी खबरें हमें रोज सुनने देखने को मिलती हैं लेकिन, हम हमारे ऊपर क्या असर होगा सोचकर इनके बगल से आंख मूंदकर निकल जाते है। आपको लग रहा होगा फिर मैं अभी हल्ला क्यों मचा रहाहूं। हल्ला मचाने की वजहहै यूपी विधानसभा के सात चरणों में होने वाले चुनाव। चुनाव आयोग ने सात चरणों में यहां वोटिंग का ऐलान किया है। दरअसल ऊपर की दोनों खबरें और चुनाव आयोग का सात चरणों में चुनाव का ऐलान , एक दूसरे से जुड़ी हुई खबरें हैं। असल बात ये है कि 150 विधायक- 30 सांसद(इतने लिस्टेड हैं) अपराधियों के अलावा दूसरे ऐसे ही रिकॉर्ड वाले अपराधियों (ये सब चुनाव भी लड़ेंगे।)
से निपटने की तैयारी में ही आयोग सात चरणों में चुनाव करा रहा है। यूपी की सीमा से लगे सभी राज्यों के डीजीपी भी अलर्ट हैं कि इस राज्यपर कहीं उनका कब्जा न हो जाए जो, गृह विभागके अपराधियों की सूची में होने के बाद भी गृह विभाग के ही मातहत आने वाले पुलिस की संगीनों के साये में अपराध करते घूमते रहें। लेकिन, ये चुनाव आयोग के बस की बात है ये मुझे नहीं लगता। क्योंकि, ये ताकत सिर्फ आपके हाथ में है।और मेरे कहने का आशय बिल्कुल भी ये नहीं है कि सिर्फ समाजवादी पार्टी में ही अपराधी रिकॉर्ड वाले लोग हैं। सभी पार्टियों में थोड़ कम-थोड़ा ज्यादा वाले अंदाज मे अपराधी सम्मानित हो रहे हैं। प्रदेश की 403 में से कम से कम 250 विधानसभा ऐसी हैं जिसमें डेमोक्रेसी का लिटमस टेस्ट होना है। क्योंकि, इन विधानसभा से पहले से चुने हुए विधायक या फिर विधायकजी बनने की इच्छा रखने वाले कोई सज्जन (साबित न होने तक यही कहा जाता है) नामांकन भर चुके हैं या फिर भरने की पूरी तैयारी कर चुके हैं।देश को राह दिखाने का दम भरने वाला उत्तम प्रदेश (अब सिर्फ विज्ञापनों में) उत्तरोत्तर गर्त में ही जाता दिख रहा है। तो, एक दिन अपनेऔर अपने प्रदेश के लिए मनबना लीजिए। सभी पार्टियों में थोड़े कम ज्यादा अपराधी और बचे खुचे शरीफ मिल ही जाएंगे।इसलिए कोशिश करके इस बार बचे खुचे शरीफों को अपराधी बनने रोकिए। नहीं तो, अगले विधासनभा चुनाव तक गृह विभाग की सूची शायद और लंबी होगी।
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