Thursday, February 21, 2008

लोकतंत्र की सबसे मजबूत पाठशाला है इलाहाबाद विश्वविद्यालय

( इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन 16-17-18 फरवरी को हुआ। किसी वजह से इसमें मैं जा नहीं पाया। इस पुरातन छात्र सम्मेलन की पत्रिका के लिए मुझसे भी विश्वविद्यालय में मेरे विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों के बारे में लेख मांगा गया था। जो, विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा है। अब तक मेरे पास पत्रिका आई नहीं है, इसलिए वो पत्रिका नहीं दिखा पा रहा हूं। मैं यहां वो लेख वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं। ये लेख इस बात पर भी मेरे विचार हैं कि पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति कितनी सही है।)

पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।

खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।

एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।

खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।

बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।

चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।

इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।

विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।

इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।

छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।

छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।

विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।

विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।

प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।

Saturday, February 16, 2008

चलो अब यूपी के लोगों को दूसरे राज्य में पिटने नहीं जाना पड़ेगा

देश के बीमारू राज्यों में अगुवा उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए इससे अच्छी खबर नहीं हो सकती है। ASSOCHAM को अब उत्तर प्रदेश में संभावनाएं दिख रही हैं। देश के दो सबसे बड़े उद्योग संगठनों में से एक ASSOCHAM की ताजा स्टडी रिपोर्ट कह रही है कि उत्तर प्रदेश उद्योगों के लिहाज से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्लेटफॉर्म बन सकता है। लेकिन, ASSOCHAM को सबसे बड़ी समस्या implementation की ही लग रही है।

ASSOCHAM ने जो स्टडी की है, उसका नाम रखा है "Uttar Pradesh: a rainbow of opportunities". ASSOCHAM की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी ताकत राज्य का मानव संसाधन और जमीन को बताया गया है। ASSOCHAM के चेयरमैन वेणुगोपाल धूत के मुताबिक, राज्य में मेन्युफैक्चरिंग की विकास दर 10.5 और खेती में 4 प्रतिशत की विकास दर होनी चाहिए। राज्य में देश की 17 प्रतिशत आबादी रहती है। साथ ही देश की कुल खेती की जमीन में से 11.8 % खेती की जमीन उत्तर प्रदेश ही है।

ASSOCHAM का कहना है कि विकास की ये रफ्तार पाने के लिए राज्य में 50,000 करोड़ रुपे का निवेश होगा। उत्तर प्रदेश में IT और ITES सर्विसेज आसानी से डेवलप की जा सकती है। इन उद्योगों से राज्य हर साल 5,000 करोड़ रुपए की IT सर्विसेज निर्यात कर सकता है। और, इन्हीं दोनों इंडस्ट्री में ही राज्य में 2010 तक 8 लाख नई नौकरियों के आने की उम्मीद है।

ASSOCHAM की रिपोर्ट के मुताबिक, IT, ITES के अलावा करीब एक दर्जन क्षेत्र और हैं जिसमें राज्य तेजी से तरक्की कर सकता है। इन सेक्टर्स में राज्य में करीब दो लाख करोड़ रुपए का निवेश होने की उम्मीद है। और, 2010 तक ये सेक्टर्स UP में 25 लाख लोगों को नौकरी देंगे। ये खास सेक्टर्स हैं फूड प्रॉसेसिंग, एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज, हेवी इंजीनियरिंग, पेट्रोकेमिकल, रियल इस्टेट, रिटेल, एक्सप्रेसवेज, टेक्सटाइल-कॉटन और सिल्क और चीनी।

जब राज्य में मायावती की सरकार बनी थी। उस पर जुलाई महीने में ही मैंने उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित नाम से एक पोस्ट लिखी थी। जिसमें मैंने साफ लिखा था कि उत्तर प्रदेश मानव संसाधन और एग्री बेस्ड इंडस्ट्री के मामले में देश का सिरमौर बन सकता है। अब यही बात ASSOCHAM की रिपोर्ट भी कह रही है। बस सवाल सिर्फ ये है कि क्या मायावती की सरकार इतने बड़े विकास के लिए तैयार है।

Saturday, February 9, 2008

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन



देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक इलाहाबाद विश्वविद्यालय 121 साल का हो गया है। 23 सितंबर 1887 को इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। दुनिया भर में प्रतिष्ठित इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन बुला रहा है। दुनिया भर से ब्यूरोक्रैट, साइंटिस्ट, प्रोफेसर, नेता, पत्रकार, साहित्यकार पुरातन छात्र इस सम्मेलन में शामिल होंगे।

16, 17 और 18 फरवरी तीन दिनों तक ये अंतरराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन होगा। इसके मुख्य समारोह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट भवन में होंगे। इसके अलावा सभी विभाग और छात्रावासों के पुराने छात्रों का मिलन समारोह उनके विभाग और छात्रावास की ओर से ही आयोजित किए जाएंगे। एल्युमुनाई कन्वेंशन 2008 के 3 दिनों में कुल 5 बड़े सिंपोजियम होंगे।

शनिवार 16 फरवरी को उद्घाटन सत्र के बाद न्यायिक, कानूनी क्षेत्र से जुड़े लोगों का पहला सिंपोजियम होगा। इसमें सुप्रीमकोर्ट के कई न्यायाधीशों के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय और दूसरे राज्यों के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, अधिवक्ता शामिल होंगे। 17 फरवरी 08 को तीन सत्र होने हैं। पहले सत्र में कला और साहित्य पर चर्चा होगी। दूसरे सत्र में विज्ञान-तकनीक और तीसरे सत्र में शिक्षा और राष्ट्रीय विकास पर चर्चा होगी। इसी दिन शाम को हॉस्टल कॉन्क्लेव का भी आयोजन किया जाएगा।

आखिरी दिन 18 फरवरी 08 को आज के परिदृश्य में बुद्धिजीवियों, संस्थाओं और दूसरे संस्थानों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में किस तरह की भूमिका हो सकती है, इस पर चर्चा होगी। इसके बाद एक डेढ़ घंटे का ओपन हाउस होगा जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय पुरातन छात्र संगठन इस बात पर चर्चा करेंगे कि विश्वविद्यालय की प्रगति में किस तरह से सहायक हुआ जा सकता है।

एल्युमुनाई कन्वेंशन 2008 के सचिव डॉक्टर प्रशांत अग्रवाल हैं। इसमें शामिल होने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र डॉक्टर अग्रवाल से agarwalprashant@hotmail.com पर या विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.allduniv.ac.in के जरिए रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं।

Friday, February 8, 2008

.... और अब चाहिए कोडिफाइड मीडिया



इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की पत्रिका ‘बरगद’ का ताजा अंक मीडिया पर है। इस अंक में मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट होना चाहिए क्या। पत्रकारिता की नई प्रवृत्तियां बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समाचारों में सनसनी और टीआरपी की होड़, विशेषीकृत पत्रकारिता न तकनीकी लेखन, सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम बनाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा मीडिया की भाषा कैसी होनी चाहिए विषय पर तीन दिन तक चली राष्ट्रीय संगोष्ठी का पूरा निचोड़ है।

इस गोष्ठी में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष रामशरण जोशी, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति राधेश्याम शर्मा, सहारा टाइम्स के प्रमुख उदय सिन्हा, जामिया मिलिया, नई दिल्ली से प्रोफेसर हेमंत जोशी, एनडीटीवी, दिल्ली के समाचार संपादक प्रियदर्शन, वरिष्ठ टीवी पत्रकार मंजरी जोशी, नया ज्ञानोदय नई दिल्ली के संपादक रवींद्र कालिया, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी के राय और दूसरे कई मीडिया के दिग्गजों के साथ मुझे शामिल होने का मौका मिला था। मैंने कौन बनाए मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट विषय पर उद्घाटन सत्र में अपनी बात रखी थी। इस संगोष्ठी के संयोजक सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन के अध्यापक और बरगद पत्रिका के प्रबंध संपादक धनंजय चोपड़ा थे।

बरगद का ये अंक bargad@rediffmail.com प्रो जी के राय या धनंजय चोपड़ा के नाम मेल करके मंगाया जा सकता है। इसकी सहयोग राशि 10 रुपए है।

Wednesday, February 6, 2008

मायावती सही कह रही थी क्या

दिल्ली पुलिस इन दिनों बड़े-बड़े कारनामे कर रही है। बड़े-बड़े भगोड़े बदमाशों को दिल्ली पुलिस धर दबोच रही है, सलाखों के पीछे पहुंचा दे रही है। खासकर उत्तर प्रदेश के भगोड़े बदमाशों के लिए तो दिल्ली पुलिस काल बन गई है। इधर की खबरों को देखकर पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है। दो दशक से भगोड़े पांच लाख के इनामी बदमाश बृजेश सिंह के बाद इलाहाबाद का कुख्यात भगोड़ा माफिया सांसद भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आ गया है।

लेकिन, एक बड़ा इत्तफाक दिख रहा है जिससे सवाल भी खड़े हो सकते हैं कि आखिर उत्तर प्रदेश के अपराधी दिल्ली पुलिस की ही पकड़ में क्यों आ रहे हैं। बृजेश सिंह के भुवनेश्वर से पकड़े जाने के बाद जब अतीक अहमद दिल्ली से पकड़े गए तो, मुझे लगने लगा कि कहीं मायावती सही तो, नहीं कह रही थी। मायावती ने कुछ दिन पहले ही प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था कि समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुना गया भगोड़ा सांसद अतीक अहमद उनकी हत्या करने की फिराक में हैं। और केंद्र की कांग्रेस सरकार उसकी मदद कर रही है। वैसे तो इतनी तगड़ी सिक्योरिटी में रहने वाली मुख्यमंत्री को कोई अपराधी कैसे मार सकता है। लेकिन, आरोप जब मुख्यमंत्री खुद लगा रही हो तो, उस पर कुछ तो यकीन करना ही पड़ता है।

वैसे मायावती का अतीक से डरना बेवजह नहीं है। मायावती को लखनऊ के वीवीआईपी गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के रमाकांत, उमाकांत यादव और अतीक अहमद की बदसलूकी आज भी डराती होगी। वैसे जब मायावती ने अतीक से अपनी जान का खतरा बताया तो, पहले से ही उत्तर प्रदेश से भगोड़ा घोषित किए जा चुके अतीक की पुलिस मुठभेड़ में हत्या की आशंका बलवती हो गई। लेकिन, न तो कल्याण सिंह का जमाना था और न ही अतीक अहमद, शिव प्रकाश शुक्ला की तरफ सिर्फ अपराधी था। अतीक माननीय सांसद हैं और आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा के लिए काम की ताकत बन सकते हैं। अब अगर दिनदहाड़े हुई हत्या के बाद भी अतीक जैसा बदमाश मुस्कुराते हुए मुख्यमंत्री पर आरोप लगाकर मजे से जेल जा सकता है तो, मारे गए बीएसपी विधायक राजू पाल की विधवा पूजा पाल और राजू की मां रानी पाल का डरना तो बेवजह नहीं ही है। उनके पास तो मुख्यमंत्री जैसी सुरक्षा भी नहीं है। राजू पाल हत्याकांड में गवाह उमेश की तो जैसे सांस ही रुक गई है।

अतीक का दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आना कई सवाल खड़े करता है। क्या उत्तर प्रदेश पुलिस में अतीक का जाल इतना मजबूत हो चुका है कि अतीक की सारी बातचीत रिकॉर्ड होने के बाद भी पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी। कहते हैं कि फरारी में अतीक ने 65 से ज्यादा सिमकार्ड इस्तेमाल किए। अतीक का भाई अशरफ और हमजा अभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आए हैं। साफ है माहौल ठीक होते ही ये दोनों भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त से यूपी की जेल में महफूज हो जाएंगे। अतीक ने दिल्ली पुलिस (मुझे साफ मिलीभगत लगती है) को खुद को सौंपने से पहले दिल्ली में टीवी चैनलों को जिस ठाट से इंटरव्यू दिया था वो, देखने लायक था। साफ दिख रहा था कि दिल्ली में किसी सांसद आवास पर इंटरव्यू दिया गया था।

एक और बात छोटे-छोटे मामलों में आजकल पुलिस अपराधियों से सच उगलवाने के लिए नारको टेस्ट का सहारा लेने लगी है। फिर अतीक को इससे क्यों बख्शा जा रहा है। साफ है अगर बेहोशी में अतीक ने सारी सच्चाई उगली तो, राजू पाल का हत्यारा साबित होने के साथ वो कई बड़े नेताओं और उत्तर प्रदेश पुलिस के कई बड़े अफसरों को भी नाप लेगा। इलाहाबाद शहर और अतीक के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में तो सबकी बोलती सी बंद हो गई है। सब कह रहे हैं कि जेल में बैठा अतीक तो अब वहीं से किसी की भी हत्या करवा सकता है। अब सोचिए कि मायावती क्या कर लेंगी अगर सपा और कांग्रेस दोनों को अतीक नेता लग रहे हैं अपराधी नहीं। मुझे तो लगता है कि मायावती सच ही कह रही हैं कि केंद्र की कांग्रेस सरकार भी अतीक की मदद कर रही है। और, अगले लोकसभा चुनाव में नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया अम्मा की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से अपना प्रत्याशी बना सकती है। जीतने में कोई दिक्कत तो है ही नहीं।