Thursday, January 24, 2008

उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा इनामी पकड़ में आने का मतलब


उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े इनामी माफिया को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। भुवनेश्वर के बिग बाजार के बाहर से धरे गए बृजेश सिंह पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने पांच लाख रुपए का इनाम रखा था। बृजेश बराबर का ही इनामी ददुआ डाकू था जिसे मायावती की सरकार बनने के बाद पुलिस ने बांदा के जंगलों में मार गिराया। लेकिन, करीब दो दशकों से सारी मशक्कत के बाद भी उत्तर प्रदेश पुलिस को बृजेश सिंह का सुराग तक नहीं मिल सका। अब दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बृजेश सिंह को खोज निकाला है। गायब रहकर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में बृजेश सिंह का आतंक इतना बड़ा था कि उस पूरे इलाके में रेलवे और दूसरे सरकारी ठेकों से लेकर कोयले तक की दलाली में बृजेश सिंह का सिक्का चलता था।

वैसे बृजेश सिंह के गायब होने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि बृजेश पूर्वी उत्तर प्रदेश में यहां के दूसरे माफिया और विधायक मुख्तार अंसारी के हाथों बुरी तरह पिट गया था। यही वजह थी कि बृजेश ने राजनीतिक शरण के रास्ते तलाशने शुरू कर दिए थे। अपने भाई चुलबुल सिंह को बीजेपी में घुसाया। चुलबुल बनारस जिला पंचायत के अध्यक्ष बन गए। फिर भतीजा बसपा के टिकट पर पहले ब्लॉक प्रमुख और अब विधायक बन चुका है।

बृजेश गिरोह के ज्यादातर बड़े अपराधियों की या तो हत्या हो चुकी है। या फिर वो चुपचाप राजनीतिकी छतरी तानकर किसी तरह अपना जीवन चला रहे हैं। बृजेश सिंह के खासमखास अवधेश राय की हत्या होने के बाद उनके छोटे भाई अजय राय विधायक हो गए और मुख्तार से लड़ाई लड़ने के बजाए सिर्फ अपनी इज्जत बचाने में ही लगे रहे। कृष्णानंद राय जैसे लोग भी थे जो, बीजेपी से विधायक चुने जाते रहे और बृजेश गिरोह की अघोषित रूप से कमान संभाले हुए थे। लेकिन, आरोप है कि मुख्तार अंसारी ने ही कृष्णानंद राय की हत्या करवा दी। मुख्तार के गृह जिले गाजीपुर में ही कृष्णानंद राय का चुनौती बने रहना मुख्तार को कैसे बर्दाश्त हो सकता था। बनारस में हुई अवधेश राय की हत्या में भी मुख्तार पर आरोप है।

आमतौर पर लोगों को बृजेश और मुख्तार की दुश्मनी ही लोगों को याद है। लेकिन, दरअसल बृजेश के अपराधी बनने की शुरुआत आजमगढ़ की बाजार में बृजेश के पिता की हत्या होने से हुई थी। जब दूसरे दबंग ठाकुरों ने बृजेश के पिता को गोली मारकर और चाकुओं से छलनी कर हत्या कर दी थी। उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के दो बदमाशों हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की दुश्मनी खुलेआम चलती थी। हरिशंकर तिवारी ब्राह्मण और वीरेंद्र शाही ठाकुर बदमाशों के सरगना जैसे काम करते थे। उसी में बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी का उदय हुआ।
चढ़ी रंगबाजी के समय बृजेश सिंह ने बहुत तेजी से पूरे उत्तर प्रदेश में अपना जाल फैला लिया। बिहार में तब वीरेंद्र सिंह टाटा की अच्छी गुंडागर्दी चलती थी। बृजेश सिंह और वीरेंद्र टाटा ने अच्छा कॉकस बना लिया था। जिससे चंदौसी की कोयला खदानों से लेकर बोकारो और जमशेदपुर तक इन लोगों की तूती बोलने लगी। कोयले की कमाई के अलावा रेलवे, पीडब्ल्यूडी और दूसरे सरकारी विभागों की ठेकेदारी इन लोगों की कमाई का मुख्य जरिया था। बृजेश सिंह का नाम मुंबई के जेजे अस्पताल गोलीकांड में भी आया था। लेकिन, इन सबके बावजूद बृजेश ज्यादातर अंडरग्राउंड ही रहता था। वो, लोगों के सामने नहीं आता था। उसकी यही मजबूती धीरे-धीरे कमजोरी बनती गई।

मुख्तार जेल में होता या फिर बाहर जबकि, बृजेश अंडरग्राउंड रहकर ही गिरोह चला रहा था। इस बीच मुख्तार और बृजेश गिरोह के बीच कई बार आमने-सामने गोलियां चलीं। एक बार तो बृजेश सिंह ने गिरोह के साथ गाजीपुर जेल में बंद मुख्तार अंसारी पर गोलियां चलाईं। लेकिन, धीरे-धीरे मुख्तार अंसारी का पलड़ा भारी होता गया। बनारस में अवधेश राय की हत्या के बाद बृजेश सिंह इस क्षेत्र में काफी कमजोर हो गया। इसी बीच हरिशंकर तिवारी के ही तैयार किए लड़के गोरखपुर में उन्हें चुनौती देना शुरू कर चुके थे। 1995 आते-आते गोरखपुर में शिव प्रकाश शुक्ला, आनंद पांडे और राजन तिवारी का गिरोह हरिशंकर तिवारी को उन्हीं के गढ़ में चुनौती देने लगा।

हरिशंकर तिवारी से सीखने वाले ये लड़के इतने मनबढ़ थे कि वो, अकेले बादशाह बनना चाहते थे। उनके निशाने हर वो बदमाश था जिसकी हत्या करने से उनका कद बढ़ जाता। पहले इन मनबढ़ लड़कों के शिकार गोरखपुर के छोटे-मोटे बदमाश हुए। फिर कई बार की कोशिश के बाद इन लोगों ने वीरेंद्र शाही की लखनऊ में हत्या कर दी। शिव प्रकाश शुक्ला हरिशंकर तिवारी को मारकर उन्हीं की विधानसभा चिल्लूपार से चुनाव लड़ने की तैयारी में था। लेकिन, आनंद पांडे की वजह से शिव प्रकाश की य हसरत परवान नहीं चढ़ की।

लेकिन, इन लड़कों के मुंह खून लग चुका था। हर एक हत्या के बाद इनके पास पैसा और बदमाशों वाली इज्जत बढ़ती जा रही थी। बिहार के मंत्री बृज बिहारी प्रसाद की हॉस्पिटल में हत्या, इलाहाबाद में जवाहर पंडित की दिनदहाड़े व्यस्त बाजार सिविल लाइंस में हत्या, बनारस से मिर्जापुर के रास्ते में वीरेंद्र टाटा की हत्या, लखनऊ में गोरखपुरे के एक नेता पर होटल में घुसकर चलाई गई गोलिया और दूसरी कई हत्याएं एक के बाद एक हुईं और सबमें शिव प्रकाश शुक्ला, आनंद पांडे और राजन तिवारी गिरोह का ही नाम आया। कहा जाता है कि इन लोगों ने लखनऊ में मुख्तार अंसारी के काफिले का भी पीछा किया था लेकिन, मुख्तार भाग निकलने में सफल रहा। कहा ये भी जाता है कि प्रतापगढ़ के बाहुबली विधायक रघुराज प्रताप सिंह से ये वसूली करने में कामयाब भी हो गए थे।

इनका दिमाग खराब हुआ तो प्रदेश के सारे माफिया इन नए लड़कों के गिरोह के दुश्मन बन गए। और, पुलिस को इनके छिपने के ठिकाने के बारे में जानकारी देनी शुरू कर दी। इसी बीच ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या में साक्षी महाराज और विजय सिंह का नाम आया तो, इस गिरोह ने साक्षी महाराज को निशाना बनाने की कोशिश की। लेकिन, इससे पहले कि वो सफल होते, साक्षी महाराज ने अपनी और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की जान को शिव प्रकाश शुक्ला से खतरा बताकर पुलिस मशीनरी की इज्जत दांव पर लगा दी। फिर क्या था पहले एक-एक कर इस गिरोह के शूटर लड़के मारे गए। फिर आनंद पांडे और फिर शिव प्रकाश शुक्ला को पुलिस ने मार गिराया।

कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते बड़े पैमाने पर बदमाशों के पुलिस एनकाउंटर के बाद कई सालों तक उत्तर प्रदेश में संगठित अपराधी छिपते-छिपाते ही अपराध कर रहे थे। लेकिन, फिर धीरे-धीरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में दूसरे बदमाशों का गिरोह तैयार हो गया। गाजीपुर में मुख्तार अंसारी, इलाहाबाद में अतीक अहमद और प्रतापगढ़ में रघुराज प्रताप सिंह अपनी जड़ें मजबूत कर चुके थे। मुलायम सिंह यादव के शासन में इन तीनों की ही तूती बोलती थी। फिर भी ये अपने क्षेत्रों से बाहर बहुत दखल नहीं देते थे। इस वजह से उत्तर प्रदेश में आम लोग दहशत में नहीं थे।

अब बृजेश सिंह पकड़ा जा चुका है। बृजेश के पहले ही राजनीतिक आत्मसमर्पण की बातें हो रही थीं। और, कहा भी जा रहा है कि बीजेपी और बीएसपी के जरिए वो खुद को बचाए रखने में कामयाब हो पा रहा था। लेकिन, अब बृजेश सबके सामने होगा। कानून की पेचीदगियों के लिहाज से बृजेश को जमानत भी मिल सकती है। या फिर वो लंबे समय लिए जेल में होगा। साफ है जिस बृजेश का किसी ने जब चेहरा नहीं देखा था और उसकी आतंक से कमाई चल रही थी तो, उसके सामने आने के बाद की स्थिति का अंदाजा साफ लगाया जा सकता है। बृजेश बहुत कमजोर हो चुका है और सपा की सरकार न होने से मुख्तार अंसारी को भी प्रशासन से बहुत मदद नहीं मिलने वाली है। लेकिन, दोनों के बीच एक बार फिर से पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंडरग्राउंड साम्राज्य पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो सकती है।

Sunday, January 6, 2008

चंद्रशेखर की पैतृक संपत्ति बलिया के लोगों ने उनके बेटे को सौंप दी


स्वर्गीय चंद्रशेखर में बलिया के बागियों की निष्ठा अब भी बनी हुई है। आजीवन बलिया से सांसद रहे चंद्रशेखर की मृत्यु के बाद बलिया की जनता ने उनके बेटे को सांसद बना दिया। अब उत्तर प्रदेश की एक लोकसभा सीट के उपचुनाव के नतीजे आए तो, राजनीतिक विश्लेषक और पार्टियों इस जीत के राजनीतिक मायने निकालने में जुट गए हैं। लेकिन, अगर ईमानदारी से इस चुनाव के नतीजे को देखें तो, इसके मायने देश की राजनीति के युवा तर्क को बलिया की जनती अंतिम श्रद्धांजलि से ज्यादा ये कुछ नहीं है।

मेरे ऐसा कहने की पीछे खास वजह भी है। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर समाजवादी पार्टी के टिकट से सांसद चुने गए हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि सपा इसका जोर-शोर से हल्ला करेगी और इसे राज्य में आने वाले लोकसभा चुनाव के राजनीतिक रुझान के तौर पर बताएगी। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार आने के बाद से मांद में छिप गए सपा के कार्यकर्ता-नेता बलिया जीतने के बाद चौराहों, बैठकों पर फिर से लोहिया के आधुनिक चेले मुलायम को धरती पुत्र बताने लगे हैं।

लेकिन, क्या बलिया सपा ने जीता है। एकदम नहीं। बलिया की लोकसभा सीट बलिया वालों ने चंद्रशेखर को पैतृक संपत्ति जैसा बनाकर दे दिया था। अब पैतृक संपत्ति थी तो, स्वाभाविक है कि बेटे को इसे विरासत में मिलना ही था। समाजवादी पार्टी ने तो, बस मौके की नजाकत भांपकर नीरज शेखर को साइकिल पर बिठा दिया। बलिया को स्वर्गीय चंद्रशेखर की पैतृक संपत्ति मैं इसलिए कह रहा हूं कि बलिया जाने पर कहीं से भी ये अहसास नहीं होता कि ये भारतीय राजनीति के एक सबसे ताकतवर नेता की आजीवन लोकसभा सीट रही है।

विकास बलिया में रहने वालों को टीवी चैनल या फिर अखबारों की खबरों के जरिए ही पता है। या फिर जो, दिल्ली में चंद्रशेखर के बंगले जाते थे उन्होंने, ही देखा-जाना है। लेकिन, फिर भी चंद्रशेखर जिंदा रहते (और शायद अब भी) बलिया में चंद्रशेखर फोबिया ऐसा था कि बलिया से विधानसभा चुनाव जीतने वाले भाजपा के कई विधायक, मंत्री भी लोकसभा चुनाव में चंद्रशेखर के पक्ष में ही चीखते नजर आते थे।
यहां रहने वालों को चंद्रशेखर ने विकास के नशे से इतना दूर रखा कि लोग उन्हें सिर्फ चंद्रशेखर होने के नाम से ही सारी जिंदगी जिताते रहे। बलिया में विकास न करने के लिए चंद्रशेखर से बड़ा कुतर्क शायद ही कोई दे सके। चार महीने के लिए इस देश के प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर कहते थे- मैं देश का नेता हूं। मुझे देश की तरक्की करनी है, देश तरक्की करेगा तो, बलिया भी विकसित हो जाएगा। चंद्रशेखर अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन, चंद्रशेखर की इस बात पर बहस होनी इसलिए जरूरी है कि कोई नेता जिस लोकसभा सीट से चुनकर संसद मे पहुंचता हो, वहां के विकास पर ऐसे अजीब कुतर्क कैसे गढ़ सकता है।

लेकिन, बलिया के लोग शायद ऐसे ही हैं। बस चंद्रशेखर ने उनकी नब्ज पकड़कर उसी हिसाब से उन्हें उन्हीं की अच्छी लगने वाली भाषा में उसी बात को उनके दिमाग में बसा दिया कि वो देश में सबसे अलग और कुछ श्रेष्ठ हैं। बलिया के लोगों को मैं अपनी पढ़ाई के दौरान इलाहाबाद में बड़े ठसके से ये नारा लगाते सुनता था कि ‘अदर जिला इज जिल्ली, बलिया इज नेशन’। बागी बलिया कहकर वो खुश हो लेते हैं। देश से दस दिन पहले बलिया आजाद हुआ था, बस इतने से ही खुश हो लेते हैं। इस आत्ममुग्धता के शिकार बलिया वालों को पता ही नहीं लगा कि कब वो देश की मुख्य धारा से पूरी तरह से अलग हो गए हैं। यहां तक कि बलिया वालों को बगल के मऊ को देखकर भी शर्म नहीं आती लिया जो, कल्पनाथ राय के सांसद रहते हुए तहसील से चमकता हुआ जिला बन गया था।

खैर, चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर बलिया से जीतकर लोकसभा में यानी दिल्ली पहुंच गए हैं। वैसे बलिया के लोगों को पता नहीं कैसे ये भ्रम हो रहा है कि चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को उन्होंने बलिया से दिल्ली पहुंचा दिया। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर तो पहले से ही दिल्ली में थे। और, ऐसे दिल्ली में थे कि इस लोकसभा चुनाव से पहले मुश्किल से ही बलिया के लोग चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को पहचानते थे। यही वजह थी कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी बलिया में चंद्रशेखर के ही बेटे को बाहरी बताने का दुस्साहस कर रही थी। लेकिन, ब्राह्मण स्वाभिमान के तथाकथित, स्वयंभू प्रतीक हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी पर दांव लगाना बसपा के काम नहीं आया। चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को 2,95,000 वोट मिले जबकि, हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर को 1,64,000 यानी लड़ाई में बहुत फासला था। कुल मिलाकर चंद्रशेखर का बेटा चंद्रेशखर से भी ज्यादा वोटों से जीतकर संसद पहुंच गया।

कांग्रेस की तो वैसे भी उत्तर प्रदेश में कोई गिनती है नहीं तो, फिर बलिया में अचानक होने की कोई वजह भी नहीं थी। लेकिन, यहां बीजेपी की जो दुर्गति हुई वो, देखने लायक है। भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता और एक जमाने में चंद्रशेखर के ही प्रिय शिष्यों में गिने जाने वाले वीरेंद्र सिंह को सिर्फ 22,000 वोट मिले। यानी साफ है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के समय वाले ही हालात हैं। सीधी लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही है।

यही समीकरण 2009 के लोकसभा चुनाव तक भी बना हुआ दिख रहा है। और, अगर यही रहा तो, 2009 में भाजपा की ओर से ‘Ex PM in Waiting’ लाल कृष्ण आडवाणी 2009 लोकसभा चुनाव के बाद ‘Ex PM in Waiting’ हो जाएंगे। बलिया लोकसभा उपचुनाव के नतीजे का संदेश मुझे तो साफ दिख रहा है। आप लोगों की क्या राय है बताइए।

Saturday, January 5, 2008

50 साल का हो गया इलाहाबाद का कॉफी हाउस


इलाहाबाद का कॉफी हाउस। शहर के सबसे पॉश इलाके सिविल लाइंस में रेलवे के नजदीक बसा ये कॉफी हाउस इलाहाबाद की खास संस्कृति का वाहक, पहचान रहा है। ये खास पहचान थी, इलाहाबाद की कला साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति में खास भूमिका की। वो, भूमिका जो, याद दिलाती है कला, साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद की अगुवाई की। माना ही ये जाता है कि कोई इस शहर से गुजर भी गया तो, साहित्य, संस्कृति और राजनीति के दांव-पेंच से अछूता, अपरिचित तो रह ही नहीं सकता।

एक जमाने में मशहूर प्रकाशन लोकभारती, नीलाभ, हंस, शारदा, अनादि, परिमल इलाहाबाद शहर में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से निकली साहित्यकारों से निकली टोली का जमावड़ा यहां होता था। अस्सी के दशक तक इलाहाबाद का कॉफी हाउस देश की राजनीति और साहित्य में सबसे ज्यादा प्रासंगिक था। यहां के सफेद फीते वाली ड्रेस में सजे सिर पर लाल फीत वाली लटकती टोपी को सिर पर सजाए बेयरे पूरी अंग्रेजी नफासत के साथ लोगों को कॉफी सर्व करते थे। और, बेहद पुरानी स्टाइल की चौकोर मेज के चारों तरफ राजनीति और साहित्य के साथ देश की दशा-दिशा पर जोरदार बहस यहां किसी भी समय सुनने को मिल जाती थी।

राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता और हेमवती नंदन बहुगुणा यहां राजनीतिक गुणा-गणित का हिसाब लगा रहे होते थे तो, इसी कॉफी हाउस में फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा जैसे देश के दिग्गज साहित्यकारों का दरबार लगा रहता था। और, इनकी बहसों से निकलने वाली बातें इलाहाबाद के आम लोगों की चर्चा मे अनायास ही शामिल हो जाती थीं। उपेंद्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे लोगों की चर्चा में लोगों की इनकी अगली कहानी के प्लॉट मिलते थे। कमलेश्वर जब भी इलाहाबाद में होते थे, कॉफी हाउस जरूर जाते थे। दूधनाथ सिंह तो, अब भी इलाहाबाद में कॉफी हाउस में कभी-गोल जमाए मिल सकते हैं।

लेकिन, आज 50 साल बाद शहर की इस खास पहचान के बारे में शहर के लोगों को भी बहुत कुछ खास पता नहीं रह गया है। यहां तक कि हाल ये है कि कला, साहित्य, संस्कृति, आंदोलन और राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाला कॉफी हाउस में अब चंद ही ऐसी रुचि के लोग मिलते हैं। अब ज्यादातर समय इस कॉफी हाउस में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ वकील, कुछ पुराने नेता, कुछ ऐसे बुजुर्ग जो, पुराने दिन याद करने चले आते हैं या फिर कुछ ऐसे लोग जो, कॉफी हाउस में बैठने की बस परंपरा निभाने के लिए ही बने हैं यानी एकदम खाली हैं।

कमाल तो है कि इलाहाबाद के इंडियन कॉफी हाउस के सामने सड़क पर अंबर कैफे खुला। ये कैफे खुला तो था सड़क पर अपना धंधा जमाने के लिए। लेकिन, कॉफी हाउस के सामने सड़क पर इसका खुलना ऐसा हो गया है कि नए जमाने के लड़के-लड़कयों को तो शायद ही अब असली कॉफी हाउस का पता होगा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराने-नए नेताओं का जमावड़ा भी इसी अंबर कैफे पर ही होता है। लेकिन, कॉफी हाउस की पुरानी पहचान आज भी शहर के लोगों को रोमांचित करती है। इलाहाबाद के कॉफी हाउस से जुड़ी बहुत कम बातों की जानकारी के लिए मुझे माफ करिएगा। और, अगर इलाहाबाद में पुराने दौर से जुड़ा आपमें से कोई इस कॉफी हाउस से जुड़े कुछ और रोचक या जानकारी बढ़ाने वाली बात जोड़ सके तो, स्वागत है।

अब भी समझ जाओ भइया नहीं तो बड़ी मुश्किल होगी

देश के इतिहास में ये पहली बार हुआ है कि किसी सांसद के खिलाफ पुलिस ने अपराधियों की तरह स्केच जारीकर उसे भगोड़ा घोषित कर दिया। माननीय (मुझे ये लिखते हुए शर्म आ रही है) सांसदों की सुरक्षा के लिए लगी रहने वाली पुलिस एक सांसद की तलाश में पिछले कई महीनों से घूम रही है। सफलता नहीं मिली तो, सांसद के चेहरे के सात संभव तरीके वाले स्केच जारी किए।

ये सांसद हैं इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से सांसद अतीक अहमद। अतीक अहमद पर वैसे तो इतने अपराधिक मामले और आरोप दर्ज हैं कि उनकी बिना पर ही सांसद को दो-तीन जन्म तो जेल में काटने ही पड़ सकते हैं। लेकिन, एक अपराधी से लगातार चार बार विधायक और फिर उसी जिले की एक सीट से अतीक को संसद का भी सफर करने का रास्ता मिल गया।

अतीक उस फूलपुर सीट से सांसद हैं जहां से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु सांसद थे। और, जिस सीट से दलित चेतना के प्रणेता कांशीराम को चुनाव हारना पड़ा था। अतीक पर आरोप सामान्य नहीं है। सांसद अतीक और उनके विधायक भाई अशरफ पर बसपा से विधायक चुने गए राजू पाल की हत्या का आरोप है। इलाहाबाद की शहर पश्चिमी सीट से लगातार चार बार विधायक अतीक ने जब अपनी विधानसभा सीट अपनी पैतृक संपत्ति समझकर आपने छोटे भाई अशरफ को सौंपी तो, समाजवादी पार्टी ने जिताऊ गणित के तहत अशरफ को टिकट भी दे दिया। क्योंकि, 2004 में अतीक को फूलपुर से लोकसभा से चुनाव लड़ना था।

लेकिन, बरसों से अतीक के आतंकराज से डरी-सहमी-ऊबी जनता ने नवंबर 2004 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा के राजू पाल को जिता दिया। राजू पाल भी अपराधी था लेकिन, जनता को लगा कि अतीक से तो बेहतर ही होगा। लेकिन, जनता को क्या पता था कि पैतृक विरासत छिनने पर कोई अपराधी क्या-क्या कर सकता है। आरोप है कि अतीक अहमद और अतीक के छोटे भाई अशरफ ने मिलकर राजू पाल की हत्या की साजिश रची और हत्या करवा दी। सपा के शासन में ये सब हुआ था तो, पार्टी के ही बाहुबली सांसद और उसके छोटे भाई के खिलाफ कोई कार्रवाई कैसे हो सकती थी। कुछ हुआ भी नहीं।

25 जनवरी 2005 को राजू पाल की हत्या हुई थी उसके बाद हुए दूसरे उपचुनाव में अतीक का छोटा भाई अशरफ जीतकर विधानसभा पहुंच गया। लेकिन, जब 2007में राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए तो, अतीक, अशरफ के साथ पूरे राज्य सपा के पापों का घड़ा भर चुका था और पश्चिमी विधानसभा से अपराधी अशरफ और राज्य से अपराधियों की सरकार कही जाने वाली सपा सरकार गायब हो गगई और राजू पाल की पत्नी पूजा पाल विधायक हो गई।

उत्तर प्रदेश में ही एक और फैसला आया है। उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने फैसला किया है कि उत्तर प्रदेश में पक्षी विहार प्रतापगढ़ की कुंडा तहसील में बेंती में ही बनेगा। बेंती अब भी रजवाड़ा है और बाहुबली उदय सिंह और सामान्य अपराधी से नेता, विधायक और मंत्री तक बन चुके उनके बेटे रघुराज प्रताप सिंह के आतंक से त्रस्त है। मायावती के शासन में बेंती में रजवाड़े के अवैध कब्जे वाली झील को पक्षी विहार बनाया गया और सरकार ने लाखों रुपए खर्च करके वहां पर पक्षी विहार बनाया। बसपा की सरकार गई और सपा की सरकार आ गई। बस इतने से ही सारा मामला बदल गया अपराधी कहे जा रहे रघुराज प्रताप सिंह सपा की सरकार में मंत्री बन गए। अब सरकारी पैसे से बना पक्षी विहार राजा रघुराज प्रताप सिंह की निजी संपत्ति बन गया । लेकिन, अच्छा हुआ कि मायावती ने फिर से सरकारी पैसे का दुरुपयोग और एक बाहुबली के आतंक को थोड़ा कम करने की कोशिश की।

उत्तर प्रदेश सरकार का इलाहाबाद के एक अपराधी सांसद और उसके छोटे अपराधी भाई और उससे सटे प्रतापगढ़ जिले के एक रजवाड़े (अब विधायक) के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान निश्चित तौर पर काबिले तारीफ है। ये गलत कामों के खिलाफ चल रहा अभियान है। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये अभियान इसीलिए चल रहा है क्योंकि, इन दोनों ने समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान मायावती से निजी पंगा ले लिया था। और, एक मुख्यमंत्री की निजी रुचि लेने की वजह से ही ये सब हो पा रहा है।

सवाल ये है कि क्या एक सरकार बदलने की वजह से ही सिर्फ अपराधी है या नहीं ये तय होता है। मायावती की ही सरकार में उनके कई मंत्री, विधायक, नेता अपराध कर रहे हैं और पुलिस उन्हें सलामी बजा रही है। अतीक अहमद और अशरफ को भी पुलिस की सुरक्षा मिली हुई थी। क्या वो पुलिस भी उन्हें बचाने में लगी रही जो, अब तक उन दोनों अपराधियों को पुलिस पकड़ नहीं सकी। सांसद अतीक के खिलाफ यूपी पुलिस ने संसद से अपील की है कि वो, अपराधी अतीक को शरण न दे। लेकिन, देश में उत्कृष्ट मापदंड की बात करने वाले सभी पार्टियों के नेता क्या अतीक जैसे अपराधी को संसद में अब तक शरण नहीं दे रहे थे।

फिर सब कुछ जानते-बूझते इस तरह के सवाल पहेली क्यों बने हुए हैं। जिसका खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ता है। लेकिन, शायद जनता खुद ही इसकी जिम्मेदार है क्योंकि, हो सकता है अगले लोकसभा चुनाव में अतीक को वो फिर से सांसद और उसके छोटे भाई अशरफ को विधायक बना दे। साफ है सरकार बदली या फिर केंद्र में कहीं सपा के समर्थन से कोई लंगड़ी सरकार बनने की नौबत आई तो, अतीक जैसे लोग दिल्ली में शाही मेहमाननवाजी का भी मजा पा सकते हैं। लोकतंत्र की कुछ बड़ी खामियों में से ये सबसे बड़ी है।